पुरखिन जो जो कहतीं थीं
सोते जगते नसीहतें देतीं थीं
वह उनकी कीमती सीख थी
जो साफ शब्दों में नहीं कह पाईं।
नहीं कह पाईं, हुनर जड़ लो हाथों में
कह गईं, बस कड़े-कंगन पहनने को।
नहीं कह पाईं, धीरज धर लो माथे पर
कह गईं, बिंदिया न गिरे कभी।
नहीं कह पाईं, सब कुछ तुम्हारे सिर,
सब कुछ तुम्हारी ज़िम्मेदारी,
कह गईं, घूँघट न गिरे सिर से।
नहीं कह पाईं, तत्परता कितनी जरूरी है
ज़िम्मेदारी ओढ़ने के लिए
कह गईं, चोटी कसकर बाँधा करो।
और पल्लू खौंस लिया करो कमर में
अड़चन नहीं होगी काम करते वक़्त।
ये नहीं कह पाईं कि जो ज़िम्मेदारी
तुम्हें सौंप दी जाएगी बिना पूछे,
वो अमूमन नामुमकिन है,
दो हाथधर के लिए…
काश…पुरखिन,
यही बात सही शब्दों में कहतीं,
तो शायद तुम्हारी आने वाली पीढ़ियाँ
कुछ अधिक परिवर्तन ला पातीं।
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