बोलता हूंँ मैं बहुत पर मैं हृदय से मौन हूंँ,
याद कुछ भी है नहीं पर मैं भुला पाता नहीं हूंँ।
घर जला, रिश्ते जले, और इज्जत तार है,
लेकिन हृदय के शूल-कांँटे, मैं दिखा पाता नहीं हूँ।
जीत भारी हो गई , सब चल दिए मुझसे परे,
लेकिन अकेली राह में, खुद को हर पता नहीं हूंँ।
हो गई हैं नष्ट फसलें ,खेत गिरवी हैं पड़े,
गिर रहे ओले मगर मैं, सर मुंडा पाता नहीं हूंँ।
आदमी हूंँ मैं हृदय से, किंतु यह आरोप है,
आदमी होने की कीमत, मैं चुका पाता नहीं हूंँ।
मनीषा बाँवर
२०-८-२३
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