खुद के अरमानों को... खुद ही छलता गया
मैं अपने ख्वाबों को... यूं ही बदलता गया
मैं भी उड़ सकता था... एक ऊंची उड़ान
मगर अपने परों को... खुद ही कुतरता गया
जाने क्यों बेबस हुआ... मैं अपनों के आगे
जहाँ नहीं झुकना था... मैं वहाँ झुकता गया
चलते हुए को आवाज़ दी... कुछ अपनों ने
आवाज़ पे रुका और.. रुकते ही उकता गया
किस्मत को पलट देता... बात थी मेरे हाथ में
मैं किस्मत में दर्द... लिखता गया, लिखता गया
बेकार मेरा हर फन... उस फनकार के आगे
यही होना था, यही हुआ है, यही होता गया— % &
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