आज लिखना है....
तुम्हारी बातें,
तुम्हारी सारी यादें....!
हाँ तब से जब चलना सीखा था
बोलना सीखा था,
हाँ तब से भी जब यादें बनने लगी
और जानने लगी मैं दुनिया
समझने लगी मैं बुआ-फूफा,मामा-मामी..
तुम टोक सकती हो कि दादा-दादी को क्यों नहीं;
क्योंकि शुरू से देखा मैंने तुम्हें उनसे बेटी की तरह झगड़ते;उनकी जिद् मानते ...
हां कभी-कभी तुम भी जिद करती थी
बिल्कुल मेरे जैसी.....
मेरे जैसी?
हाँ! तुम मेरे जैसी ही तो थी
क्योंकि बेटी तो तुम्हारी ही हूं न...
पता है मुझे तुम्हें बिल्कुल पसंद नहीं था
मेरा खेलते-खेलते कहीं गुम हो जाना
किसी के घर छुप कर बैठ जाना
कि तुम खोज न पाओ...
पर जाने कहां से तुम आ धमकती थी वहां भी;
कितना कुछ ....
सब उकेरना चाहती हूँ
एक पन्ने पर ....
क्या मुमकिन है?
पन्ने पर न सही पर लगता है
एक बार फिर तुम ही जी रही हो
मुझमें; क्योंकि अब मैं भी हु-ब-हू वही हूँ
जो उस समय तुम थी ......
पन्ने पर न सही मेरे जीवन में हो तुम
कल भी, आज भी और शायद आजीवन....!
-