कभी-कभी मैं भाग रही होती हूं
उस शोर से जो बंद कमरे में सुनाई दे रहा
जो फुसफुसा रहा है तो कभी चिला रहा है
आंख बंद करने पर उबलती आग सा दिखाई दे रहा
एक युद्ध सा चल रहा मेरे चारों तरफ
फिर भी मैं सोचती हूं मैं लड़ लूंगी इससे
पर शायद मैं गलत हूं .. शायद!!
आत्म-संदेह, नकारात्मकता , भयानक विचारों ने...
और भी कई बंदिशों ने मुझे जकड़ रखा है..
आईने में खुद के प्रतिबिंब में खामियां दिखाई देती हैं..
और खुद से ही घृणा और शर्म आने लगती है
चारों ओर घूम रहे शब्दों के मकड़जाल को
सुलझाने में खुद को असमर्थ पाती हूं ...
और ये सब मेरी आंखों और मुंह से निकलने की बजाय..
असंदेह , गहरी असुरक्षा को जन्म देता है....
जो स्थाई निशान तो नहीं छोड़ता पर...
मेरे सीने बड़ी आसानी से जाकर दफन हो जाता है..
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