अब्र बनकर ऐसी बरसी मैं कि आसमान भूल गई, इश्क़ उस हद तक किया कि स्वाभिमान भूल गई... मिटी ऐसी मेरी हस्ती कि मुझे पहचान न पाया कोई, सब्र करते करते मैं दिल के सारे अरमान भूल गई...
प्रेम ऊर्जा का प्रवाह होता जब भी भावों में तो वो ही दिल कहलाता है, हो आधिपत्य जहां विचारों पर इसका तो वो ही मन कहलाता है... ना छूट सके ना भूल सके ये असर है प्रेम के भावों और विचारों का, दिल से मन तक जो प्रेमी इस पर राज करे वो ही ईश्वर कहलाता है...
मेरे ज़िंदगी के कमरे में पड़ी हुई अरमानों की चारपाई, गुथी हुई है जिसमें मोहब्बत की रस्सी, मेरे दुखों के वज़न से झूल चुकी है... इस कदर सूख गई हैं आँखें याद करके तपती अतीत की कहानी, की अब ये "ख़ुशबू" बरसना भूल चुकी है...
सुनकर इसका नाम ही हृदय गति रुक जाती है, घृणा हो जाती है विलुप्त सी कहीं दूर जाके छुप जाती है... 'प्रेम' लाए निष्प्राण में कंपन प्राणी का हो जाए निर्वाण, स्वर्ण, रजत या फ़िर हो हीरा है कोई नहीं इसके समान... राधा सी नहीं प्रेम दीवानी कान्हा सा कोई अनमोल नहीं, धन सारे संसार का रख लो पर प्रेम का कोई मोल नहीं...
मुरझाए फूलों में ज़िंदगी, नास्तिकों में भी बंदगी नज़र आती है... नज़रिया ठीक करो यारों वर्ना तुम्हें इंसान बनाने में खुदा को शर्मिंदगी नज़र आती है... स्वर्ग को आखिर देखा है किसने? वो है धरती पर ही उसके लिए ऐसा चाहा है जिसने... दूसरों का आंकलन कर दुखी और आक्रोशित होते हो, गैरों पर बेवजह तुम क्रोधित होते हो... क्या ये उचित है? पूछो कभी ख़ुद से। क्यों तुम्हें हर तरफ़ महज़ गंदगी नज़र आती है? है ये दुनिया रब की तो खूबसूरत सब कुछ है यहां नज़रिया ठीक करो यारों वर्ना तुम्हें इंसान बनाने में खुदा को शर्मिंदगी नज़र आती है...
बाहरी दुनिया ले जाती है अनजानी राहों पर.. भटक जाता है इंसान जहाँ अंधेरों में.. पर अंतर्मन की आवाज हमेशा कानों में कहती है कि सुनो,ऐ भटके राही! देर अभी भी नहीं हुई.. लौट आओ वापस। भटकना कभी गलत नहीं होता पर न संभलना भी सही नहीं होता...
प्यार की उम्मीद लिए मैं बिस्तर की सिलवटें ठीक करती हूँ... कि फ़िर से रात आएगी खुशियों का कंबल ओढ़े मुझे थपकी देकर सुलायेगी... मेरे गहरी नींद में जाते ही तुम मेरी आत्मा से सीढ़ियां लगाकर इन आंखों तक पहुंचोगे... और फ़िर मुझे तुम्हारा प्यार गले से लगाकर बोलेगा, "देखो रात ढल गई मैं फ़िर तुम्हारे पास आ गया"।