वक़्त ये आया है इस आशिक़ी की मंज़िल में
कि अब अपना दिल ही नहीं रहा इस दिल में
न अपने दिल की कहो ना ही दूसरों की सुनो
अजीब रंग यह भी देखा, तुम्हारी महफ़िल में
अब ख़ुदी कहूँ याकि इसे बेख़ुदी बताओ तुम
अपने आप ही चला आया, कू-ए-क़ातिल में
अंजाम-ए-इश्क़ ने, इस मर्तबे को पहुँचाया है
अब रहा न फ़र्क़ कोई, राह में और मंज़िल में
अब कोई मुझे, परवाना कहे तो कोई दीवाना
मुझको करो शुमार, आशिक़ान-ए-कामिल में
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