"ख्वाबों के परिंदे"
बस की खिड़की से झांकने पर,इक हुजूम नज़र था आ रहा
हज़ारों गाड़ियां,उन पर सवार लोग,पूछने को उनसे जी था मेरा चाह रहा:
है कौन सी मंज़िल ऐसी,जिसे पाने की चाहत में हर सुबह निकलते हैं सब
दिखती किसी के चेहरे पर मुस्कान,किसी पर थकान,
लौटते हैं जब।
बस का शीशा ताकने पर दिख रहा है अपना अक्स जो
खो गया है इस हुजूम में,लग रहा है ऐसा वो
है धूल मिट्टी शोर-ओ-गुल भी और सिग्नल की लाल रौशनी,
पल भर थमे इस कारवां में खोज रही हूं ज़िंदगी।
खिड़की के उस पार आसमां में,है उड़ते परिंदे कुछ दिख रहे
उड़ चला है मन ये मेरा,संग उनके हिमालये।
है ऊंचे ऊंचे पर्वत यहां,चूमते हैं वो गगन
है गहरी गहरी नदियाँ भी,सींचती धरती का तन।
दूर दूर तक देखो जहां भी,दिख रही है वादियां
शोर-ओ-गुल से बहुत दूर,मैं और मेरी खामोशियां।
सूरज और बादल खेलते हैं लुका छिपी अक्सर यहां,
सात रंगों का इंद्रधनुष करता है रौशन इनका जहां।
ऐसे ही कई रंगों से कुछ पल के लिए था मन भरा,
टूट गया वो ख्वाब मेरा, लाल सिग्नल के होने पर हरा।
चल पड़ा है कारवां फिर से अपनी मंज़िल की तरफ
परिंदे भी वो उड़ गए ,ख्वाब में दिखाकर सुकून की इक झलक।
सवाल जो जी में थे मेरे, शोर-ओ-गुल में कहीं खो गए
जवाब थे जो ख्वाबों में,जाते परिंदों को देख वो भी सो गए।।
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