मेरे व्यक्तित्व अपने साथ एकाकार कर मेरे रीतेपन के साथ जागते मेरे सुख दुख को समेटे अविचल खड़ा रहता है यह मेरा शहर है साहब मैं यहां नहीं वस्ता यह मेरे अंदर वस्ता है । इसकी गलियों की गोद में होता है मुझे मेरे होने का बोध जुड़ा है मेरा अस्तित्व यही यही रह कर जाना है प्रेम का मर्म दिखाया है इसने ही इश्क के रंग हर पल, हर क्षण साया बन मेरे साथ रहता है यह मेरा शहर है साहब, मैं यहां नहीं वस्ता यह मेरे अंदर वस्ता है। समाए अपने अंदर रिश्तों की गंध यारों की चुहल और अपनापन मेरी खूबसूरत यादों अपने आप में संजोए मुझे अपनी आवोहवा में बसाए मेरे अनमोल स्मृतियों को सुरक्षित रखता है यह मेरा शहर है साहब मैं यहां नहीं वस्ता यह मेरे अंदर वस्ता है ।।
झर झर ये नीर,मन भी अधीर तुम रहे पीर हम क्या कहते,, था एक ख्वाब, रहता लगाव तुम रहे घाव हम क्या कहते,, थी ये भी भूल,समझे थे फूल तुम रहे शूल हम क्या कहते,, बिखरा ये मान,बिखरी थी जान तुम रहे अंजान हम क्या कहते,, बोझिल ये स्वास,क्यों अब भी आस तुम रहे खास हम क्या कहते , हम क्या कहते.............
मन से ज्यादा उपजाऊ जगह कोई नहीं है , क्योंकि.... वहाँ जो भी कुछ बोया जाये, बढ़ता जरूर है .. चाहे वह ,,,, 'विचार' हो 'नफरत' हो या फिर... 'प्यार' हो ..||