हिमांशु सिंह   (अंशु)
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Joined 29 September 2019


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Joined 29 September 2019

मुझको मोहब्बत का वो सफ़र आज भी याद है,
मुझको बा-ज़ुबानी तेरा शहर आज भी याद है याद है...

वो बारिश का मौसम,और वो नम आँखे,
मुझको आख़री मुलाकात का वो मंज़र आज भी याद है...

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उस चाँद के रुख़ पे क्या खूब निखार आया है...
चाँदनी रात में छत पे जो मेरा यार आया है....

कल तारों ने हल्के से कहा था मेरे कानों में,
चाँद जलता के उसने ऐसा रूहानी नूर कैसे पाया है...

जब भी उसकी जुल्फें उसके चेहरे पे आती है,
लगता है मानो आसमां में काली घटाओं का साया है...

ये जो उसकी हल्की भूरी आँखों मे काज़ल है ना,
खुदा को रात का ख़्याल भी तो यहीं से आया है...

वो उसके माथे की बिंदी देख रहे हो न ,
तुम्हे पता भी है उसने कितने आशिकों का दिल चुराया है...

उसके कानों के झुमकों से बहुत जलन होती है मुझे,
चूमते रहते है उसके गालों को,कमबख्तों ने क्या किस्मत पाया है..

उसके लबों को देख के ही तो साकी को मय का ख्याल आया था,
उसके एक हँसी से ही तो मौसमों में बहार आया है...

इतने पास हो के भी वो तुझसे कितनी दूर है,
रह भी नही सकते,कह भी नही सकते "अंशु" तूने भी क्या नसीब लिखवाया है...

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सुनो "ठकुराईन" तुम्हारी हर गुस्ताख़ी भी कमाल लगती है...

यूँ शर्मा के मेरे सीने से आ लगना,तुम्हारी ये अदा बेमिसाल लगती है❤️...

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उसने जो पूछा के हिज्र का मतलब क्या होता है??
मैंने बोला के अहद-ए-वफ़ा का अंजाम होता है...

मैं तुमसे मिलने भी बस इसलिए नहीं आता जानां,
तुमसे बिछड़ के ये दिल भी मेरा बहुत रोता है....

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खुद को थोड़ा सब्र का काम क्यों नही देते.
खाली कब से प्याला यूँही, तुम एक और जाम क्यों नही लेते..

हर वक़्त क्यों सोचते हो मेरे बारे में,
अपने जहन को थोडा आराम क्यों ही देते...

देखो मैं फ़िक्र सिर्फ अपने दोस्तों की ही करता हूँ,
यार दोस्ती को दोस्ती ही रहने दो, इसे यूँ प्यार का नाम नही देते..

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ऊल-जलूल होती है बातें तुम्हारी,हाँ मुझे बस वही पसन्द है...

और तुम जो बिना बोले ही मेरे सीने से लिपट जाते हो न,हाँ मुझे बस वही पसन्द है...❤️❤️

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शाम को परिंदो को घर लौट आना चाहिए,
ख्वाबों के आसमान से अब उतर जाना चाहिए.....

कुछ रहम तो कर अपने बंदे पे मेरे मौला,
मेरा मन कहता है के मुझे मर जाना चाहिए..

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सुनो......इस जन्माष्टमी तुम मुझसे एक वादा करोगी क्या??

मैं बन जाता हूँ कान्हा तुम्हारा,तुम मेरी राधा बनोगी क्या??❤️❤️

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एक उम्र से एक उम्र तक एक उम्र को बर्बाद कर रहा था मैं..
ताश के पत्तों का एक महल था जिसे घर कर रहा था मैं...

उस दरख़्त के सारे पत्ते भी झड़ चुके थे,
न जाने कब से जिसका गला तर कर रहा था मैं..

एक दरिया भी आया था सामने बर्बादियों का मगर,
किसी बेनाम ख़्याल में खोया सफर कर रहा था मैं...

राही तो जन्नत की तरफ निकला था घर से,
राह-ए-दोजख पे मग़र चल पड़ा था मैं.

वो एक आदमख़ोर शख़्स था जिसे इंसा करना था,
पहली बार छुआ था उसे,तो रो रहा था मैं...

एक अरसे बाद जब ख़्याल आया उस बूढ़े फ़रिश्ते का,
तब तक तो यार कफ़न ओढ़ सो चुका था मैं..

मेरी मय्यत पे तुम आँखे नम क्यों कर रहे "अंशु",
बस साँसे ही चल रही थी,वरना कब का मर चुका था मैं...

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बहुत खास है शख्शियत मेरी,तू मुझे आम न कर...

क्या कहा मोहब्ब्त है मुझसे,पहली फुर्सत में निकल ज्यादा बकवास न कर....

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