खिल जाती थी रूह सुन कर कभी जिसे
अब प्यार शब्द से ही हमें डर लगता है
फूल सा कोमल था जो दिल कभी
तेरे दर्द में हो गया पत्थर लगता है
रोके ना रुकती थीं जिन पर हँसी कभी
उन लबों को हसाने में भी अब जबर लगता है
मिले थे पहली दफ़ा जहाँ तुम और मैं
“मनी” को अब वो बाग भी अपनी कबर लगता है
मोहब्बत हुई सस्ती, इश्क़ बँटता ख़ैरात में
ना जाने क्यूँ अकेली वफ़ा पे ही कर लगता है
चला जाता हूँ तेरी याद के साथ तट पर
मेरे अशकों से ही भरा यह समुंदर लगता है
साथ जाग कर काटी रात चाँद ने भी
मेरी तरह हो गया यह बेघर लगता है
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