जा के इस वट वृक्ष के पास लगता
जैसे सुना रहा सदियों की दास्तां
लपेटे हो खुद में जैसे कितने क़िस्से कहानियाँ
जैसे कर रहा हो दर्द बयां
कि देख लो मैं हुँ यहाँ सदियों से खड़ा
पर न जाने कब दफ़्न हो जाऊ यहाँ
न जाने कब नीवं हो जाऊ ऊँचे-ऊँचे कंक्रीट के दिवारो का
आने वाले पीढ़ियों को फिर कंप्यूटर में यह दृश्य दिखा
कहना कि होता था एक वृक्ष अत्यंत घना
जड़े जिसकी छूती थी धरा
धार्मिक आस्था से था जुड़ा
कहते थे बह्म विष्णु महेश का वास था यहाँ
हर तरह के औषधीय गुण से था भरा
AC कूलर न करे वो, जो इसके शीतल छाया में था मजा
पर विलुप्त हो गया ,हमारे लालचो के भार तले ये भी दबता चला गया...दबता चला गया।
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