बर्ग-ए-शफ़क़   (ऋतु)
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Joined 25 January 2020


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बड़ी मुद्दत हुई,तेरे काँधे पे सिर रखे हुए,
आज थोड़ी फ़ुरसत हुई तो,तू नहीं साथ मिरे।

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नम आँखों के जज़्बात ,जो शब्दों में बयाँ नहीं होते,
बस ठंडी आह भरकर दफ़न हो जाते हैं खामोशी में।

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ले जाता है हमें
एक लंबी तलाश में,
भ्रम के जंगल में,
ज़ज़्बातों के दंगल में,
और एक सफर पे,
जो कभी खत्म नहीं होता,
अपितु गहराता जाता है,
मौन साधे वक़्त के साथ,
तेरी यादों के सहारे।

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तेरे कामपाश में

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Memories intertwine with life,weaving a fragrant tapestry of existence.

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मेरे शब्दों को अपने अधरों पे धर,
कोई नज़्म नई गुनगुनाओ ना,
भर के मुझे आगोश में अपने,
कोई धुन नई सुनाओ ना,
फिर यूँ रख के सिर सीने पे मेरे,
कोई ग़ज़ल नई बनाओ ना,
हाँ! आओ ना,थोड़ा और करीब आओ ना।

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कैसे कह दूँ?
ये अर्धसत्य मैं,
कि तुमबिन हैं, पूरे हम,
हर इक पहर जो तुमबिन गुज़रे,
क़हर सा बरपे मुझपे सनम,
व्याकुल मन और बेचैन ये तन,
द्वार पे तुझको ढूंढें,
आतुर साँसें और उत्सुक नयन,
आजा रे अब साँवरिया,
तुझसे दूर, हैं अधूरे हम।

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तेरे छोड़े हुए बोसे,
बदन पे मेरे, अब भी,
बर्फ़ सी अगन जगाते हैं।

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जो जिस्म से होकर रूह में उतर जाता है,
हाँ! वो दर्द ही तो है,हर पल कचोटता है,
बिलखता है और हृदय पत्थर बना जाता है,
वो आँखों से बह के लबों पे ठहरता है,
दिल जला के होठों को सिल जाता है,
रोक लेता है वक़्त को,मुट्ठी में भींच के,
चीखने भी नहीं देता, दम घोंट देता है।
जिरह करता है, दम भी भरता है,
साँसें रोक कर,नब्ज़ पढ़ता है,
हाँ! वो दर्द ही तो है
जो व्यंग करता है।

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कुछ तो असर है उसकी बातों में,
यूँही नहीं कोई दिल हार जाता।

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