Ashutosh Parashar   (Aaashu_writes)
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Joined 6 April 2018


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26 JUN 2023 AT 13:43

मेरे चेहरे पर जो होते है,
क्यों बाद मेरे वो नही रहते ।

स्त्री कह दीजिए उनको,
होकर आदमी जो नही रहते ।

वक्त की मार है धूप छांव लगी रहती है,
जवानी फिर बुढ़ापा हम ज्यों के त्यों नही रहते ।

मेरी झोपडी मे कुछ नही मेरे मन मे सुकून है,
तुम कहो उन महलों मे खुश क्यों नही रहते ।

लेखन : आशुतोष पाराशर
मेरठ

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21 NOV 2022 AT 0:18

लोग, मौसम, पहर ज्यों के त्यों हैं,
गांव, कस्बे ये शहर ज्यों के त्यों है ।

दर्पण, तू, तेरी परछाई सब यहीं है,
प्याले, कलम ये जहर ज्यों के त्यों हैं ।

रौनकें, रोशनी, रमन्नक सब भ्रम है,
लकीरें, कच्ची दीवारें ये घर ज्यों के त्यों हैं ।

साल, माह, सप्ताह बदल गए तो क्या,
तारीखें, इतवार ये कलंडर ज्यों के त्यों हैं ।

यादें, तकलीफें ये कहर ज्यों के त्यों हैं ।
‘आशु ’ तेरी गजलों के बहर ज्यों के त्यों है ।

बहर – गहराई
लेखन – आशुतोष पाराशर ( मेरठ )

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25 JUN 2022 AT 9:49

मै ताउम्र बुतों‌ मे इंसान खोजता रहा,
इंसानियत बसती जहां, मकान खोजता रहा ।

जिंदादिलों मे जिंदगी और मुर्दों मे जान खोजता रहा,
' आशु ' इस जहां के सारे शमशान खोजता रहा ।

घर के कोनो मे ' गरीबी ' के निशान खोजता रहा,
जहां बिकती हो अमीरी वो दुकान खोजता रहा ।

हो रस से भरी कोई मै जुबान खोजता रहा,
कड़वे लोग बने मीठे मै वो ' पान ' खोजता रहा ।

अपना ही दोस्ती के लिए, इक अंजान खोजता रहा ।
होकर फिक्रमंद मै, मेरा खानदान खोजता रहा ।

अब जाकर मैंने जाना कि शैतान खोजता रहा,
मै इंसान नही अब तलक हैवान खोजता रहा ।

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25 MAR 2022 AT 17:49

मिरी खामोशी से इक मातम की गंध आती है,
इन जिंदादिलो को क्योंकर ये सुगंध आती है ?

शोरगुल से भीतर मेरे इस कदर भरा हूं मै,
मिरे ही कानों तक ये ध्वनि मंद आती है ।

इंसा से इंसा की तरह मिलने लगा हूं मै,
स्वार्थ की रोशनी मे नजर धुंध आती है ।

तजुर्बे से मिरे अब तलक जिंदा ही रहा हूं,
धड़कने मिरी एक लंबे अरसे से बंद आती है ।

लेखन - आशुतोष पाराशर

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14 MAR 2022 AT 12:20

The Kashmir Files
( A must watch movie for all Hindustaanis )

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5 DEC 2021 AT 16:58

रोज सहर पर निकल कर घर लौट आता है,
वो प्रवासी अंततः क्यों शहर लौट आता है ।

बाद जद्दोजेहद के जब अंजाम पे आता है,
पूर्ण विराम से पहले उसमे ' पर ' लौट आता है ।

मेरी आत्मा का मंथन भी कोई सुकून ढूंढ लेता,
जहन मे मेरे तेरी स्मृति का जहर लौट आता है ।

' आशु ' रघों मे खूं नही वो ही दौड़ता है तेरी,
होकर शायर की गजल का बहर लौट आता है ।

मुझमें रोज जीता है कोई रोज मरता भी है,
शोक से पहले सन्नाटे का कहर लौट आता है ।

ये बरस बिता पाना तेरे बगैर मुमकिन था मगर,
इक दिन ढल पाता कि वो पहर लौट आता है ।

तुझे खुद से मिटाकर जिंदगी आसान न रहेगी,
बिन तेरे तनहा सफर का डर लौट आता है ।

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3 DEC 2021 AT 12:17

बाद तेरे उसमे बचा ये खालीपन है,
शोक से हर्षरत दिखता नीरस मन है ।

एक खुशबू है बची उस में कहीं लिपटी हुई,
सिर्फ अक्स बाकी न तेरा.. पूरा तन है ।

सोचता है जब तुझे सोचता रह जाता है,
सोचने वाला कोई मुझको दिखता पूरा मग्न है ।

आंखों मे पानी लिए और यादें हंसाती है उसे ,
शुन्य कंठ पर वेदना का कितना भारी रूदन है ।

दर्द से थपेड़े हुए हैं क्यों शब्द भावों से भरे,
कानों में लगते है मानों मेघ थामे वो गगन है ।

लेखन - आशुतोष पाराशर
मेरठ

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13 NOV 2021 AT 20:16

सिर्फ जेब नही, नोट रिश्तें भी गर्म रखते है,
पैसों से खिंचने वाले बातों को मर्म रखते हैं ।

छांव मिलती है तो बेशक सराहा जाता है,
प्रवासी, तूफानों मे उन पेड़ों पर भ्रम रखते हैं ।

अमीर नही सफर पर भूखे भी मिलते हैं मुझे,
मिल–बांट कर खाते हैं थोड़ी तो शर्म रखते हैं ।

मंगलसूत्र नही उनका सम्मान गिरवी रखते हैं,
हराम का खाने वाले क्या कोई धर्म रखते हैं ?

मेहनत से कमाने वाले ही सुकून से सोते हैं,
अब तलक हम अच्छा ही कर्म रखते हैं ।

आओ बैठों कभी तुम्हे बेशक सुनेंगे,
सज्जनों के लिए हम स्वभाव नर्म रखते हैं ।

लेखन - आशुतोष पाराशर
( मेरठ )

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5 NOV 2021 AT 13:01

कोई तो है अपना ❤️

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5 OCT 2021 AT 12:51

क्यो रास नही आते हैं उजाले मुझको,
बस अंधेरों के समंदर हैं संभाले मुझको ।

राह मे मिलते ही रहे पेट के काले मुझको,
मंजिल पे भी लटकते मिले ताले मुझको ।

खुदपरस्ती मे था रोटी को रोटी न कहा,
याद आते है मां तेरे हाथों के निवाले मुझको ।

मै हालात का मारा था बस मुस्कुराता ही गया,
उफ्फ, क्यों परेशां से दिखे लूटने वाले मुझको ।

कब तलक वो मुझे पलकों पे सजाए फिरता,
कर दिया उसने भी अश्कों के हवाले मुझको ।

हर पहर मुझमे नाकामी की बू आती है,
मेरा होना ही कहीं मार न डाले मुझको ।

गजल - आशुतोष पाराशर ( मेरठ )

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