Arafat Munawwar   ((Arfi) ✍️)
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Joined 11 February 2019


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Joined 11 February 2019
18 APR 2023 AT 4:50


قیامت کا منتظر ہوں شدّت سے میرے رب
دنیا میں ہو گیا ہے جینا مہال ا ب


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25 NOV 2022 AT 14:52


ग़ज़ल ख़ुशी से नाचने गाने लगती है,
जब हर मिसरे में दाद तुम्हारी आती ।

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12 OCT 2021 AT 21:46

हर-सम्त जुगनू रक़्स करने लगते हैं,
जब भी दफ़अतन बात तुम्हारी आती है।

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25 JUL 2021 AT 2:25

अपने सुकून ए क़ल्ब में फ़ना ही रहो,
बे-फ़िक्र-ओ-असीर-ए-अना ही रहो।
गर मेरे बिना तुम ख़ुश रहते हो,
तो फिर अब से मेरे बिना ही रहो।

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26 MAY 2021 AT 0:18


हरदम बस एक ख्याल साथ तेरे होने का,
कल शब आया था एक ख्वाब तेरे होने का।

जब नहीं होता तो बेहद क़रीब होता है,
और तू हो, तो होता है, इंतज़ार तेरे होने का।

विसाल-ए-यार में हुज्जत के सिवा कुछ भी नहीं,
मुझको काफ़ी है बस एहसास तेरे होने का।

ना-उम्मीदी,उदासी,बेचैनी इस क़दर मुसलसल थीं।
मुझको करना ही पड़ा ऐतबार तेरे होने का।

कभी जो देखकर तुझको पाते थे शिफ़ा 'अर्फ़ी'
वही एलान कर रहे हैं बीमार तेरे होने का।

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28 AUG 2020 AT 1:34

ग़म-ए-हिज्र हर रोज़ बसर करने के बाद भी,
मुझे मौत क्यों नहीं आती, मरने के बाद भी।

न कहीं सुकून-ओ-चैन न कहीं राहत मिली,
गुज़िश्ता शब तेरे शहर में ठहरने के बाद भी।

हम जैसे बदनसीब तो जहन्नुम के ही रहे,
राह-ए-पुल-सिरात से गुज़रने के बाद भी।

दावा-ए-इश्क़-ए-मोहब्बत करे भी तो कौन,
ज़िन्दा हम दोनों ही हैं बिछड़ने के बाद भी।

दो ग़ज़ ज़मीन, स्याह रंग और तन्हाई,
तमाम बंदिशे रहीं, मरने के बाद भी।

कर रहे हैं अपनी बख़्शिश की दुआ 'अर्फ़ी',
नामा-ए-आमाल बदी से भरने के बाद भी।

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22 AUG 2020 AT 20:15

खफ़ा क्यों होंगे घर के मेज़बान थोड़ी हैं,
हम भी देंगे जवाब हम बे-ज़ुबान थोड़ी हैं।

न किसी ने बांटा था और न कोई बाँट पायेगा,
ये हमारा वतन है, किसी का ख़ाली मकान थोड़ी है।

कौन मांगेगा हमसे ज़मीं से मोहब्बत का हिसाब,
हर किसी की पेशानी पर सजदे का निशान थोड़ी है।

वो कर रहे हैं दावा वतन को लुटेरों से बचाने का,
ख़ैर छोड़ो सियासी लोग इतने मेहरबान थोड़ी हैं।

पुरखे हमारे भी वही हैं, पुरखे तुम्हारे भी वही हैं,
पर हमारे सीने में दिल तुम्हारी तरह बेजान थोड़ी है।

पहले बहर पढ़ो, रदीफ़ समझो, क़ाफ़िया जानो,
राहत साहब को जवाब देना इतना आसान थोड़ी है।

राहत साहब ने जो कहा था ठीक ही कहा था,
किसी के बाप का 'हिन्दुस्तान ' थोड़ी है।

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12 AUG 2020 AT 22:26

न किसी दर न किसी दरबार में होने आये हैं,
हम तो घर से बस यूँ ही निकल आये हैं।

इत्तेफ़ाक़न मिल गए हो तो ज़रा ठहर जाओ,
क़िस्से अभी फ़िराक़ के कहाँ तुम्हें सुनाये हैं।

दुआ-ए-वस्ल उसके बाद फिर की नहीं कभी,
जब हुआ महसूस कि पत्थर को गले लगाये हैं।

इश्क़-विश्क़ की बातें तो ख़ूब सुनी हैं हमने,
कोई कह रहा था मियां ये सब शय-बलाएं हैं।

सियासत हो या मोहब्बत दोनों एक ही फ़न हैं,
किसी ने बस्तियां तो किसी ने दिल जलाये हैं।

ये बात भी सच है कि इसमें कुछ सच नहीं,
क़िस्से जो फ़िराक़ के अब तक हमने सुनाये हैं।

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11 AUG 2020 AT 20:36

रोज़ वही इक कोशिश ज़िंदा रहने की
मरने की भी कुछ तय्यारी किया करो।

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3 JUN 2020 AT 0:34

दो ग़ज़ ज़मीन, स्याह रंग और तन्हाई,
तमाम बंदिशें रहीं मरने के बाद भी।

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