सुनों..याद है न तुम्हें,
अपनी पहली बसंत की..वो यादें,
आम की बौर सी,भीनी सी खुशबू बिखेरती।
महकती फ़िजाओं में घुलती,तुम्हारी गहरी सांसें,
मन में अठखेलियाँ करती वो प्यारी सी निगाहें
न चाहती फिर भी खींची चली जाती...
बस तेरी ओर, बस तेरी ओर।
न जानें कैसा जादू था तुम्हारी बातों का,
न जानें कैसा एहसास था तुम्हारी वादों का।
याद तो होगा न तुम्हें..वो छोटा सा पत्थर,
जिस पर बैठकर,अपनी हाथों में मेरा हाथ रखकर
तुमने कहा था,ये आम के बौर,बिल्कुल तुम सा है,
कभी शांत तो कभी चंचल,तो कभी नटखट।
जब भी आती है प्रिय..बसंत में बौर..
खिंची चली जाती हूं,बस तेरी ओर, बस तेरी ओर।
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