नीलवर्णी दीप तुम कुलभास्कर रघुवंश के
हर्ष मुखरित हो रहा साकेत के नववंश से।
सर्वत्यागी तुम मधुर हो और सकल आधान हो
बसते जिसके प्राण में उस पितृ के तुम राम हो।
धैर्य के पर्याय हो, तुम वीर हो बलवान हो,
अग्र हो भ्राताओं में, मातृ के अभिमान हो।
साधुओं! के प्राण रक्षी धृष्टता भजते नहीं,
ये जगत अनुचर तुम्हारा पथप्रदर्शक राम हो।
जन्म लेता है दिवस, गोते लगाती है निशा
दर्श को आतुर हवाएं और जगाती हैं तृषा
इस जहां के हर रवा में, जो बसे वो गाम हो।
स्मृतियों के पटल में, तुम ही आठों याम हो।।
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