Aman Sachdeva  
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Joined 5 April 2019


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Joined 5 April 2019
7 MAR 2023 AT 21:35

अपने समय से दूर है प्रतीक्षा
प्रेम से मजबूर है प्रतीक्षा
राम समय पर आ गए हैं!
सीता का क़ुसूर है प्रतीक्षा?!

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19 SEP 2022 AT 17:41

ये किस तरह कि धुन बजा रहे हो तुम,
इतनी दूर से मुझे बुला रहे हो तुम।

मैंने अभी तुम्हें जाने नहीं कहा,
कितने बेसब्र हो कि जा रहे हो तुम।

आता नहीं कोई मदद के नाम पर,
बड़े बेबकूफ हो कि आ रहे हो तुम।

ये जो लिखते हो तुम शायरी में मोहब्बत
बारिश में आग जला रहे हो तुम।

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26 JUN 2022 AT 0:16

स्वर्ग का बाँध

शीघ्र कुछ करने कहा था प्रार्थनाओं!
और कहा था ईश्वर से कह न देना,
कि सूख जाएगा गला इस विश्व का
गर बाँध को बनते रोका न जाए
स्वर्ग के उस छोड़ पर, खाई जहाँ
आरंभ होती है भेद की सीमा,
सीमा वही जो मानवों से
देवताओं को बचाती है,

(पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़ें।)


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17 APR 2022 AT 23:41

मेरी बस एक चाहत है,
समय को प्रेम हो जाए।

पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़ें।

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17 JUN 2019 AT 10:11

रात छूकर जो निकली भोर हो जाएगा,
मत छूना बाँसुरी को, शोर हो जाएगा,
गर तुम्हारे अधर का स्पर्श मिल गया,
और विस्तृत, कवि स्वर घोर हो जाएगा।

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20 APR 2019 AT 11:43

प्रेमधर्म


मैंने प्रेम किया, किया धर्म प्रिया,
जो सकल विश्व का मर्म प्रिया।

पूरा नीचे पढें।

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29 DEC 2021 AT 16:26

विश्व का संताप

अभिप्राय क्या है, बंधनों में
बाँधकर खुद को जकड़ने का?
और भविष्य की इन भट्ठियों
पर सपने जलाने का?

अपेक्षाओं, आकांक्षाओं, संभावनाओं
के बेमौत मरने का
अभिप्राय क्या है मेरा तुमसे
प्यार करने का?"

पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़ें।








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31 AUG 2021 AT 23:58

बारिश

क्या कहकर बुलाऊँ और रोक लूँ बादल
कि मेरे शहर की जरूरत है बारिश!

बहुत सूखता हूँ हर बरसात में मैं,
है कैसा गुनाह गर मोहब्बत है बारिश?

मैं सैलाब से क्या कहकर लड़ूँगा
जब चाहत ही बादल इबादत है बारिश।

कई झूठ सुनकर घर से निकला नहीं था,
मुसाफिर हुआ तब हकीकत है बारिश।

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13 JUL 2021 AT 2:15

इतना ज्यादा हो जाता है प्यार तुम्हारा
तुमको अपना प्यार छुपाना पड़ता है!
दुनिया तुमको पागल ही तो समझेगी
दुनिया के हिसाब में आना पड़ता है!

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2 MAY 2021 AT 11:51

इक पतंग की डोर छत से गुजर रही है,
ये लड़की क्यों इधर से गुजर रही है?

उसके पीछे भागता हूँ मैं बेतहाशा
जो बस में इस शहर से गुजर रही है!

मुस्कुराकर, पलकें झुकाकर, सामने से
पागल, मुझे ही देखकर यूँ गुजर रही है।

बिछड़कर चीखते हैं दोनों भीतर,
जो अँधेरों पर वही रोशनी पर गुजर रही है।

शहर से गांव, फिर गांव से शहर,
भूख पैदल ही सफ़र में गुजर रही है।

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