सोचते थे कभी हम,
मन के भावों को लिखना,
आसान बहुत लगता है,
पर जब लिखने बैठे तो जाना,
मन के भावों को लिखना आसान नहीं,
लिखते लिखते अब सीख गए,
आसानी से लिखना कहना,
अब फ़िक्र नहीं होती कौन क्या कहेगा,
अब तो बस यूँ ही जो मन में है,
लिख देते हैं भाव मन के,
समझने लगे हैं अब हम भी,
दूसरों के व्यवहार पढ़ने लगे हैं लोगों के मन को,
ज़िंदगी बिंदास जीते हैं,
चार दिन की जो है मिली,
हँसी ख़ुशी जी लें हम भी,
बहुत जी लिया सबके लिए,
अब थोड़ी अपने लिए जी लें हम भी,
आसान बहुत लगता है सब कुछ कहना,
पर कर पाना थोड़ा मुश्किल होता,
बस कह देने से नहीं छूटता घर द्वार,
ज़िम्मेदारियाँ बाँध देती हैं पाँव में बेड़ियाँ,
इन सबके चलते थोड़ा समय चुराया है अपने लिए,
तब बैठ कर लिखा है,
शब्दों में पिरोया है,
अपने मनोभावों को,
आसान बहुत लगता है,
ज़िंदगी में हर काम,
पर सिर्फ़ कहने के लिए,
जब करने बैठे तो समझ आता है,
दाल आटे का भाव!
अदिति रूसिया
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