विपदाओं की माया से मन विचलित होकर केहता है,
क्या खोना है क्या पाना है क्यों असमंजश रेहता है..
जगते सोते नैनद्वार से अश्रुधारा बेहती है,
अन्तर्मन के राजमहल में कौन सी दुविधा रेहती है..
रोज़ कोई अनजान पहेली शाम ढ़ले घर आती है,
उलझन की परिभाषा से अवगत हमको करवाती है..
अर्धरात्रि में जब कोई स्वपन आँख में खिलता है,
दुविधा,उलझन,असमंजस से तब आराम सा मिलता है..
अगले दिन का सूरज अपने साथ सवेरा लायेगा,
मन खुद मन से केहता है,कल सब अच्छा हो जाएगा..
अंधेरी रातों में दिल का ढाँढ़स स्वपन बंधाते हैं,
चलो किसी सपने की गलियों में फिर से खो जाते हैं..
चलो ख्वाब के सीने पे हम सर रख कर सो जाते हैं..।
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