Aastha Nath  
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Joined 6 February 2017


Joined 6 February 2017
23 FEB AT 20:25

मैं कुछ इस कदर हिफाज़त करने की आदी हूं
और नज़ाकत से मात खा जाती हूं
मैं हिफाज़त करने की आदी हूं
लेकिन बंदिश करार दी जाती हूं

मसले सुलझाने की कोशिश में
फासले भुला से जाती हूं
मैं हिफाज़त करने की आदी हूं
मनमर्ज़ी पूरी करने की डगर में
खुदगर्ज़ी अनदेखी कर जाती हूं
मैं हिफाज़त करने की आदी हूं

खोने का इल्म भी न हो अगर
पाने की पुष्टि करने चले जाती हूं
मैं हिफाज़त करने की आदी हूं
कई मर्तबा कहने की बावजूद
कुछ रफ़ा-दफ़ा कर ही नहीं पाती
मैं शायद बेफिजूल ही हिफाज़त करने की आदी हूं।

- आस्था नाथ







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23 OCT 2023 AT 23:18

नमक के लिए जीते हुए
जादुई शक्कर का स्वाद भूल गए
और जब तोहफ़े में वो जादू मिला
तो उसका इल्म हुए बिना चल दिए

कह के बढ़े की छोड़ो पीछा
आखिर इत्तिला कर तो दिया
जिम्मेदारी पूरी हुई तुम्हारी
कोई बाज़ी नहीं जो जीती या हारी

मिठास थी केवल शक्कर की
न की दाव उसके जादू पर
और कमी खलती है नमक की
सवाल ए मुशक्कत है उसे कमाने पर

शक्कर की केवल मिठास का ज़िक्र नहीं
खोए जादू से रंग उड़ने की फ़िक्र है
आखिर बाज़ी खेलनी है दाव लगाना नहीं
सवाल ए मसरूफ़ियत ऐसा न करने पर है।

-आस्था नाथ





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11 JUN 2023 AT 22:22

अब हाल कुछ ऐसा है इस सफ़र ए हयात में
एक पूरा लिखा नामा भी बयान न कर पाए
मलाल है कि न मिली तवज्जो उस को
उस अलविदा को जिसे वक्त न दे पाए
और जब मिला वक्त महसूस करने को
तो जाना की खबर सुना ही न पाए
एक यकीन है कि पाया होगा सुकून को
बस एक खालिश है साथ जो भर न पाए ।



-आस्था नाथ

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10 NOV 2022 AT 16:08

जैसे भीनी भीनी ठंड में छिपा हुआ बसंत
ठहर कर देखो तो मन में उम्मीद उठे
कि हो जाए बस पल भर में जीवंत
अगर गुज़र जाने दे यूं ही बैठे बैठे
तो लगे कि शायद इसका कभी न हो अंत

जैसे आंखों में सुबह का काजल
अगर फैल जाए तो दिखने लगे थकान
और सामने सब कर दे ओझल
लेकिन ज़रा ठहर के रखे इत्मीनान
तो लगे जैसे सब होगा मुकम्मल।




- आस्था नाथ

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21 AUG 2022 AT 0:17

कुछ इस कदर मसरूफ हैं दरजे दर्ज करने को
की खर्चे में लम्हे कम पड़ खर्च करने को
अब हिसाब लगाए तो कर्जे में डूब रहे है
लेकिन ख्वाब में तो चर्चे खूब हो रहे है

यूं तो कहेंगे कि ये मर्ज़ी का मर्ज़ है वहम पालने का
पर अब यही फर्ज़ी सा फर्ज़ है इस ज़माने का
अब अर्जी भी लिखें तो अर्ज भी होगा एक तराने से
और कहेंगे आखिर हर्ज ही क्या है इस फसाने से

तो अब खर्च होते हुए दरजे दर्ज हो रहे है
कर्जे और चर्चे दोनो ही बढ़ रहे है
मर्ज कहें या फर्ज़ ये तो खबर नहीं
पर कभी अर्ज करेंगे तो हर्ज जताएंगे सही।

- आस्था नाथ

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25 MAY 2022 AT 23:58

हम सब का आज किसी के मरण पर ज़िंदा है
कोई शमशानो की चिताओं पर जला कर
उसकी भस्म माथे पे लिये चलता है
अब क्या पता उस से क्या ही ज़ाहिर करता है
भस्म के रंग से माथे की शिकन छिपा कर
दुनिया वालो से कहने से आखिर डरता है
या फ़िर निडर हो कर वो भस्म लगा कर
अपने कर्मो की सरेआम नुमाईश करता है

हम सब आज किसी के इन्तकाल का हिस्सा है
कोई कब्रिस्तानो में मलाल का किस्सा बन कर
खोद कर बस दफन किए जा रहा है
अब क्या पता कि वो जब कब्र को गहरा कर रहा है
अपने ही इंतकाल का की वजह छिपा कर
ऊपर बस फूलों का इन्तज़ार कर रहा है
या फिर उस गहराई से मुकाम ऊँचा कर
बस ऊपर अपनी वाहवाही का इन्तज़ार कर रहा है

अन्तः हम सब अन्त ना होके भी किसी न किसी के अन्त से आरम्भ है।

-आस्था नाथ














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8 MAR 2022 AT 15:56

I usually see the world sometimes as negatives, but  not always as the potential of turning them into photographs which are yet to be framed to get recognition, but just as negatives which are diminished, faded even in the light but still are in series of small parts, sometimes with massive change in just a flicker of moment and sometimes a minor change that we can play spot the difference between them just like this world in a continuous manner. 
 
I tend to lose the colours in them so not to focus on the highlights but evenly on all parts and find details to set them apart to bring them together. 
The best part in this process is when I look at people, they are rolled up in a reel on their own and are meant to be clicked bit by bit,  sometimes gradually and sometimes drastically over a period of time. 
For me, life is a set of negatives which are transparent enough to give an outline somehow but always under the process of development. 

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8 JAN 2022 AT 2:05

दस्तक दो तो दहलीज़ पर तैयार
और न दो तो सुकून फिर भी बरकरार
हम तो थे बस फ़ुरसत के मेहमान
पर मेहमान नवाज़ी निकली कुछ बेमान
की उसकी दिखाई गई लज़्ज़त
इस कदर बढ़ गई है क़ुर्बत
कहने को एक किस्म के है मुसाहिब
लेकिन बस कुछ है नही मुनासिब
एक नज़रिये से सब लतीफ़ा है लगता
और बस यही है उस वक़्त को हमारा स्तीफ़ा
फ़िर भी दस्तक दो तो दहलीज़ पर तैयार
और न दो तो सुकून फिर भी बरकरार।

-आस्था नाथ

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14 NOV 2021 AT 1:22

हथेली पर दिल रखते हैं
की बाहर के एहसासों की खुशबू ताज़ा रहे
महकते रहें खुल के लफ्ज़ बनने तक
गले में गुलबन्द लपेटे हैं
कि आवाज़ में सदाकत बनी रहे
महफ़ूज लिपटी रहे उन लफ्ज़ो के मिलने तक
जब तक ज़ुबान पर न आए
आँखों में सुरमा लगाए हैं
की देखते ही नज़र उतर जाए
माथे पर बिंदी सजाए है
की सोच का मुद्दा टिका रहे
चाहे देखने में मुद्दत बीत जाए।

-आस्था नाथ

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16 OCT 2021 AT 23:27

अगर समंदर नदी से हिसाब मांगता
की कोसों दूर से मुझ में मिलने से पहले
कितने शहर आबाद किये
कितनो का तुमने जीवन बांधा
और कितने किनारे आज़ाद किये

कही समंदर शिकायत करता
की निकली जब तुम झरना बन के
स्वरूप न इतना मैला था
तुम्हारी मिश्री किस में मिश्रित हुई
क्योंकि मैं तो फ़ितरत से ही खारा था

की मांगता गिनती कुछ इस तरह की
कितने पुलों की वजह बनी तुम
और कितने बांधो को वजूद दिया
कितने उफान पर चढ़ी थी तुम
और कितना शान्त बहाव दिया

तो सहज रूप में कहती नदी ज़रूर
की मेरी नियती है तुम तक आने की
कोई सौदा और सूत का ना है दस्तूर
बस तुम्हारी नियत है सब समाने की
और मेरी फ़ितरत है बह जाने की।

-आस्था नाथ




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