Zohaib Baig (Ambar Amrohvi)   (امبر امروہوی)
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Joined 17 August 2018


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Joined 17 August 2018
19 DEC 2018 AT 23:52

गर मिरे इश्क़ में सदाक़त है,
आज़माने की क्या ज़रूरत है..

आज़माइश जहाँ ज़रूरी हो,
वो मुहब्बत! कोई मुहब्बत है..??

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16 JAN 2022 AT 19:14

लताफ़त जब रगो-पै में सरायत हो ही जाती है,
ग़ुरूरे-हुस्न पर आइद नज़ाक़त हो ही जाती है..

कोई ग़म शेर बनता है कोई बनता है अफ़साना,
ग़मे-दौरां के बाइस ये करामत हो ही जाती है..

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1 SEP 2021 AT 0:43

"फर्क़ पड़ता है" से "कोई फर्क़ नहीं पड़ता" तक का सफर इंसान एक दिन में तय नहीं करता।
इन दो जुमलों के दरमियान जो हसरतों की वादी है उसमें उम्मीदों, वादों और इरादों का क़ब्रिस्तान है, यहां भरोसे की लाशें दफ्न हैं, और मुहब्बतों के ख़ून का दरिया बहता है।
इस दरिया पर बने दुखों के पुल को पार करके इंसान ढीठपन के जिस मैदान में आकर अपनी अना के ज़ख़्म सहलाता है उसे "कोई फर्क़ नहीं पड़ता" कहता है।
बात तो ज़रा सी है मगर इसको समझने के लिए बड़ा दिल और इंसानी अहसासात चाहिएं, वरना तो वाक़ई में क्या ही फर्क़ पड़ता है..!!

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29 AUG 2021 AT 9:17

सदियां बीतीं मगर मैं आब ए चनाब,
अब भी कच्चे घड़े से डरता हूँ..

صدیاں بیتیں مگر میں آبِ چناب،
اب بھی کچے گھڑے سے ڈرتا ہوں۔

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23 JAN 2021 AT 5:13

जौन एलिया 20-20

पोस्ट कैप्शन में पढ़ें..

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22 JAN 2021 AT 12:37

जब कि तक़दीर में लिक्खी है उदासी "अम्बर",
आज क्या बात जो होंठो पे हँसी आई है..!!

جب کِ تقدیر میں لکھی ہے اُداسی ”عمبر “،
آج کیا بات جو ہونٹوں پہ ہنسی آئی ہے۔۔!!

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27 DEC 2020 AT 9:56

मैं वादी ए ऐमन पे ही मौक़ूफ़ नहीं हूँ,
हर दश्त मिरा पर्सनली देखा हुआ है..

जन्नत से निकाला हुआ आदम हुँ मैं “अम्बर”
दोज़ख़ है उधर और इधर मेरी अना है..

میں وادی ایمن پے ہی موقوف نہیں ہوں،
ہر دشت میرا پرسنلی دیکھا ہوا ہے۔۔

جنّت سے نکالا ہوا آدم ہوں میں ”امبر“
دوزخ ہے اُدھر اور اِدھر میری عنہ ہے۔۔

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28 NOV 2020 AT 15:06

ہر گھڑی ایک خلش رہتی ہے مجھ کو ”امبر“
عقل وحشت میں گرفتار ہے آزاد نہیں۔
ہے اگر یاد تو اتنا کہ محبّت کی تھی،
کس سے کی تھی کہاں کی تھی یہ ذرا یاد نہیں۔۔

हर घड़ी एक ख़लिश रहती है मुझ को “अम्बर”
अक्ल वहशत में गिरफ़्तार है आज़ाद नहीं.
है अगर याद तो इतना के मुहब्बत की थी,
किस से की थी कहां की थी ये ज़रा याद नहीं..

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28 NOV 2020 AT 14:43

حسن والوں کی خودنمائی نے،
توڑ ڈالے ہیں کتنے آئینے۔۔
हुस्न वालों की ख़ुद-नुमाई ने,
तोड़ डाले हैं कितने आईने..

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31 JAN 2020 AT 13:10

बनायेगा बिगाड़ेगा बिगाड़ेगा बनायेगा,
ऐ कूज़ागर तू इस मिट्टी को कब तक आज़मायेगा..

कहीं झाड़ी में उलझी कोई तितली जान दे देगी,
कहीं गुल शाख़ पर यूँ ही कँवारा सूख जायेगा..

मुझे पानी से है उल्फ़त उसे इक जिस्म की हाजत,
मैं जा कर डूब जाऊँगा समंदर जब बुलायेगा..

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