कुछ बरस पहले तक ... कत्थई से कपड़े पहने ... एक आदमी गुलाबों से भरा बस्ता लाता था ... कभी अपने कंधे पर लटका कर ... तो कभी साइकिल पर बांध कर ... और गली गली घर घर जा कर ... वो लोगों के हाथों में गुलाब थमा देता था ... वो सारे घर और गलियां ... खुशबुओं और मुस्कुराहटों से महका करते थे ... उन फूलों की गिरी हुई पत्तियों से रास्ते सजा करते थे ...
मैंने सुना है कि कुछ लोग उस आदमी को डाकिया ... और उन गुलाबों को प्रेम पत्र भी कहा करते थे ...
चाँद तोड़ कर लाने की जगह ... यूँ ही किसी दिन घर लौटते हुए ... तुम उसके लिए लाना गुलाब ... लाना अदरक जो वो लेना भूल गयी है ... वो एक पैर की पायल लाना ... जो टूटने की वजह से पेहेनना छोड़ दी उसने ... लाना वो दुपट्टा जो बहुत पसंद था उसको ... मगर ज़रा सा महँगा होने की वज़ह से खरीदा नहीं ... चाँद तोड़ कर लाने की जगह ... कभी कभी अचानक गले लगा कर उसको ... तुम उसके चेहरे पर हंसी और दिल में सुकून लाना ...
अलमारी में रखे कुछ सिक्कों को ज़ेबों में रख कर ... इक ज़ेब को तन्हाई और इक को आधे इश्क़ से भर कर ... निकलते हैं शाम ढले उनकी मोहोल्ले की गली से हम ... ढूंढते हैं चाँद को उस गली की बालकनी में अक्सर ... खनक सिक्कों की अचानक तभी हमसे कुछ कहती है ... जो देखे हैं सपने करोगे उन्हें तुम पूरा कब तक ... कदम धीमे और ज़हन खयालों से भरने लगता है ... मेरे चाँद और मेरे ख्वाबों का जमघट लग जाता है मन पर ... गली के दूसरे कोने में रुक कर कुछ खाने को लेते हैं ... लौटते हुए अपने कमरे की खिड़की से आते हैं वो नज़र ... घर आते आते सिक्कों की ज़ेब खाली और इश्क़ की पूरी भर जाती है ... करते हैं फिर गुफ्तगू हम अपने सब ख्वाबों से मिल कर ...
दोनों की बेचैनियाँ खामियां डर दर्द नफ़रतें ज़ख्म ... सब लगने लगे हैं खूबसूरत जब से ... पिरोये हैं सब अहसासों के धागे इश्क़ की सुई से ... जब से दोनों ने इश्क़ का दोहर ओढ़ा है ...
इतवार कभी खुद के लिए इतवार नहीं लेता ... गुल खिलने के लिए किसी एक दिन का इंतज़ार नहीं करते ... पहाड़ बिखेरते हैं खूबसूरती हर पल बरसों बरस ... बारिशें रुकती नहीं किसी वजह को सोच कर ... ये सब ऐसा इसलिए कर पाते हैं ... क्योंकि इन्हें खुद से मोहब्बत है ... इन्हें हमारी तरह खुद से मोहब्बत करने के लिए ... किसी एक लम्हे के आने की ... या किसी इंसान की इजाज़त की ... ज़रूरत नहीं होती ...