Vivek Kumar   (Vivek Kumar)
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Joined 31 March 2017


Joined 31 March 2017
27 DEC 2021 AT 19:32

हर रोज़ तुझपे मुकदमा बिठाकर, हर रोज़ बरी तुझे हम करते हैं
की ख़ुद तुझपे इल्ज़ाम लगा कर, तेरी वकालत हम करते हैं

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8 MAY 2021 AT 17:55

Wrote this piece 8 years ago, but still relevant

भगत राजगुरु की तरह दे ना कुर्बानी वो,
नापाक जो ना हो वो ईमान ढूंढता हूँ

दरिंदे से घूमते हैं बशर के लिबाज़ में,
इंसान के शहर में इंसान ढूंढता हूँ

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21 SEP 2020 AT 11:15

सालों से सूनी जर्जर इमारत को आज मिली खुशहाली

कटी लाल आज फीताशाही, खूब बज रही ताली

उन्नति की मंद प्रगति पर कैसा ये उल्लास  है

पता करो रे बबुआ, कहीं चुनाव तो नहीं पास है


एक वखत की नून रोटी को भी जिसने खूब था तरसाया

अपने हक़ की मांग पर भी जिसने था लाठी बरसाया

वही प्रशाषण देखो आज बांटता करोड़ों का विकास है

पता करो रे बबुआ, कहीं चुनाव तो नहीं पास है


विरलय जो नेता दीखते थे अपने शहर के बंगले में

आज घूम रहे गली गली में, झाँक रहे हर जंगले में

बाहुबली के निर्मम मुख से झड़ती गुड़ सी मिठास है

पता करो रे बबुआ, कहीं चुनाव तो नहीं पास है




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29 AUG 2020 AT 20:02

गुस्ताखी शोलों की ही है मुश्तक़ील
कहीं पन्नो को जलाती, कहीं बस्तियां खाक करती है

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4 MAY 2020 AT 20:25

एक विषाणु, सूक्ष्म जीवाणु लेता मेज़बान की जान
करता दुर्बल आतिथेय को, मंद मंद हरता फिर प्राण

विष फैलाता अभ्यंतर और तल पर क्षति के देता निशान
कैंसर जैसा खोखला करके, बना देता फिर एक मसान

दूभर करता श्वास लेना, और फिर बढ़ाता तापमान
श्वास, स्वाद, गंध व जीवन, नहीं रहता कुछ भी आसान

महत्वाकांक्षी ,अभिमानी है,और खुद को माने बलवान
भूदेवी के दुर्गम कोनों में भी अब पहुंचे इसके निशान

देखो व्यंग्य प्रकृति का जब कोठरी में बंद हुए सुल्तान
कट गई वो टांगें, चादर से आगे जो ली थी तान

प्राणी प्रफुल्ल, नदियां नवीन, हुआ और उज्जवल आसमान
निर्मल वायु, नीरव नगर, बस नाद पंक्षियों की सुबह शाम

हर एक प्राणी देव अंश , फिर तू क्यों बन बैठा शैतान
कोरोना बस एक निमित मात्र, सच्चा धूर्त तो है इंसान

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13 JAN 2020 AT 22:38

कौन सा मुक़दमा करु, कौन सी दफा लगाऊं
की जिस्म सलामत और रूह क़त्ल कर जाती है


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13 JAN 2020 AT 14:06

क्या क्या पढ़े, क्या क्या लिखे हम
शऊर समंदर, सफ़े महदूद हैं

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6 JUN 2019 AT 23:06

दफ्तर से लौटते गाड़ियों के हॉर्न
खाली बसों के ढांचों की इस्पाती खड़खड़ाहट
फैलते शहर की गवाही देता वो मेट्रो का शोर
ऊंचे उठते सभ्यता को आकार देते क्रेनों की सरसराहट

आवाज़ें ही हैं सारे पर ज़रा ठहरो
ये वो शोर तो नहीं

निशा के मौन को तोड़ती झींगुर की चींखें
क्षितिज पे होती सियारों कुत्तों की मनहूस रुदाली
सावन को आशान्वित मटमैले मेढक की टर्र टर्र
अविरल समीर से पत्तों फसलों तालाब की कव्वाली

सन्नाटे के उस शोर को पाने को मन विचलित सा होता है

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12 DEC 2018 AT 20:33

आज वो जल्दी निकला दफ्तर से
सोचा खाली सड़क मिलेगी , पर ये कैसी माया
दृश्य अनोखा देख के जी उसका घबराया

गाडियो की थीं लंबी कतार, मानो जैसे सांप कोई
बेबस सा वो बस में खड़ा, लिए अपनी निर्बल काया

दूजी ओर की खाली सड़क को देख दिमाग ठनका
थोड़ी सी उधर हलचल को देख सब समझ मे आया

हुए चुनाव कुछ दिन पहले, आज नतीजा आया
"मैं आपका सेवक हूँ", नेताजी ने था विश्वास दिलाया

आधे घंटे की प्रतीक्षा फिर green signal आया
Voter उर्फ मालिक ने फिर स्याह लगी उंगली से माथे का पसीना उड़ाया
जैसी democracy की इच्छा, जा सेवक की माया

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3 JAN 2018 AT 11:35

कभी दिखता था हर शक़्स में अक्स तेरा
अब तुझमे ही तेरी तस्वीर दिखाई नहीं देती

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