Vishwanath Agrawal   ("vishw")
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Joined 11 June 2017


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24 APR 2018 AT 17:33

झुर्रियों से भरे अक्सर चेहरे पे।
वो आस भरी उम्मीद की मुस्कान।
अपलक निरंतर निहारती है।
किसी भी आहट को जान।
सब कुछ त्याग दिया जिसने।
बिना सोचे समझे न पहजान।
एक छोटी सी उम्मीद से पाला था।
खिलाया अपने मुँह का निवाला था।
आज ख़ुद झेल रही बेबसी का मंज़र है।
चला उसके मन मस्तिष्क में ख़ंजर है।
उसने तो अपने मन को समझा ना पाया।
ये क्या हुवा उसके साथ मन को हरा न पाया।
किसी अपरिचित ने उसके घर में ऐसी दस्तक दी।
सारे उसके अपने सपने अधूरे रह गए।
किसी अपने ने ऐसी हरकत की।
विश्व में ये दुर्घटनाये तो अब..
आम होने लगी है।
सड़कों में झुर्रियों वाले चेहरे..
खुले आम होने लगी है।
फिर भी झुर्रियों से भरे चेहरे पे।
वो आस भरी मुस्कान आज भी बाक़ी है।
कोई अपना तो आएगा हाल पूछने।
बस इतने के लिए जान बाक़ी है।

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23 APR 2018 AT 15:01

नीद क्रिया है एक अचेतन मन की।
ध्यान प्रकिया है एक सहज नीद की।
मन विचारों के उथल पुथल का समूह है।
जितना है बस केवल इतने का ग़ुरूर है।
जीवन में ये सच है विचार एक वेग है।
और ख़्याल आना जाना इसका रोग है।
पाना छूटना हमारा एक प्रलोभन है।
नित्य क्रिया का ये तो सम्मोहन है।
ख्याति वियोग हमारे सबके पहलू है।
जीवन के संयोजक नदी सरयू है।
विश्व का ताना बाना बड़ा ख़ास है।
यहाँ प्राप्ति ही बस एक केवल प्यास है।
पर कही भ्रमजाल हो रहा बड़ा विकराल है।
सोचने समझने की शक्ति पे पड़ा अकाल है।
क्या पाना क्या खोना किसी को कहा ज्ञात है।
यहाँ तो बस पैमाना भौतिकता की बात है।
मन केवल हमारे ही छलावे में छल रहा।
उन्नति के नाम पर बस भौतिकता पल रहा।
इसीलिए तो बस ख़ालीपन का अहसास है।
सबसे समृद्ध सभ्यता में जी रहे हम....
फिर भी क्या सच में सब कुछ हमारे पास है।

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18 APR 2018 AT 20:13

विषाक्त सा जीवन।
उथल पुथल भरा मन।
कहाँ किस ओर जायें।
हर तरफ़ तो है सूनापन।
वो कभी न बुझने वाली चाह।
सत्य बिना..
क्या मिल जाती है पनाह।
खोखले दिखावे बाहरी रंग रूप में।
पता नहीं क्या पाने घूम रहे धूप में।
कितना सरल संतुलित जीवन है।
पर व्यथित करता हमारा मन है।
न जाने किस ओर की आरज़ू है।
सबको केवल मंज़िल की जुस्तजू है।
फिर भी अपने अहम की संतुष्टि में।
केवल मैं को सिद्ध करने की पुष्टि में।
विश्व में अकेले जिया जा रहा है।
विषाक्त सा जीवन हुवा जा रहा है।

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2 APR 2018 AT 10:10

दूर खड़ा वो क्षितिज में।
बड़े ग़ौर से निहारता है।
आस की पगडंडी में चलते हुवे।
अक्सर ख़ुद के अंदर झाँकता है।
क्या हुवा जो चाहा वो ना मिला।
पर पाने की चाहत में तो भागता है।
एक मृगतृष्णा लिए बावरा सा मन।
कुछ पाने को आतुर सा बेचैन तन।
जीवन के कठिन पथ पे जागता है।
दूर खड़ा वो क्षितिज में।
बड़े ग़ौर से निहारता है।
विश्व के चक्रव्यूह को भेद ना पाए शायद।
फिर भी प्रयास पूरा करने को तत्पर संग।
राही से मंज़िल बन जाना चाहता है।
रेगिस्तान के तपिश से लड़कर।
आख़िर वो भी कुछ बन जाना चाहता है।
दूर खड़ा वो क्षितिज में।
बड़े ग़ौर से निहारता है।

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30 AUG 2017 AT 12:24

।।शुद्धीकरण।।

बड़े कारगर सिद्ध होते।
वो तरीक़े जिससे
मन का शुद्धीकरण होता है।
जाओ किसी बेसहारे को।
प्यार बाँट के आओ।
या किसी अपने का गला काट आओ।
फ़र्क़ तुम ही जान लोगों।
क्या पता अपनी अन्तरात्मा
पहजान लोगे।
हालाँकि ये बात उनपे लागू होती है।
जिसके अंदर में आत्मा होती है।
विश्व के ख़यालात कुछ ऐसी है।
शुद्धीकरण के तरीक़े एक जेसी है।

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23 AUG 2017 AT 18:55

।। मूल्य।।
कौन कितना अमूल्य है।
किसका कितना मूल्य है।
ये तो समय समय की बात है।
क्योंकि इसका
परीक्षण तो हालात के साथ है।
कहावत है समय बलवान है।
कहता है कि करता इंसान है।
हर स्थिति में आतुर सभी है।
कहते है हम चतुर सभी है।
पर केवल सफलता की कुंजी
मिलती समय अनुसार है।
वर्ना आदमी करता प्रयास हर बार है।
विश्व में एक बात तो बहुत साफ़ है।
होती इंसान की मूल्य समय के साथ है।

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23 AUG 2017 AT 11:35

।।तमीज़दार।।

अक्सर लोग ऊँची डिग्री तो लेते है।
पर साथ ही अपनी मर्यादा खो देते है।
स्वतंत्र विचार धारा के नाम पे।
कुछ भी कह रहे है।
और कह रहे है
हम अपनी मर्ज़ी का जीवन जी रहे है।
बेमिसाल बात तो ये है।
उन्हें अपने बच्चों से बड़ा प्यार है।
पर वो भी किसी के कुछ होगे
जो केवल उनके जीने का आधार है।
बड़ों से बात करने का संस्कार भी कमाओ।
अपनी आने वाली पीढ़ी को ये भी सिखाओ।
विश्व में दुनिया गोल है की कहानी प्रसिद्ध।
तुम भी होगे अपने कर्मों के हिसाब से समृद्ध।

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17 AUG 2017 AT 16:48

।।अहंकार।।

शब्दों की कहानी ही रह जानी है।
जवानी तो सबकी आके ही जानी है।
क्या मेरा क्या तेरा रह जाएगा।
दुनिया शब्दों से आपकी कहानी सुनाएगा।
आज खंडहर पड़ें है बेताज लोगों के महल।
शायद जहाँ होती थी रात दिन चहल पहल ।
वक़्त की बिसात पे क्या राजा क्या रानी।
राख के ढेर या दो गज़ ज़मीन में होगी रवानी।
बड़े शुरमा बने फिरते थे जो लोग।
लड़खड़ाते क़दमों पे पाए जाते है।
बिना सिर पैर के बड़बड़ाये जाते है।
विश्व में हर अंधकार के बाद उजाला आता है।
पर यहाँ तो
अहंकार से आगे आदमी कभी उठ नहीं पाता है।

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16 AUG 2017 AT 17:24

दर्द को सम्हाले जी रहा हूँ।
कटु अनुभव के सीख पी रहा हूँ।
दरिया तो तूफ़ानी ही है।
फिर भी बिना पतवार जी रहा हूँ।
कब होगा पूरा आरज़ू का ख़ज़ाना।
उसे पाने की चाहत में बस जी रहा हूँ।
दर्द बिना कहे जीना क्या सिखा साहेब।
अब तो कोई देख के भी हाल नहीं पूछता।
चेहरे पे सबका ध्यान है दोस्तों।
मन की अंतरात्मा कोई नहीं पूछता।
साम्राज्य तो बहुत आयें विश्व में।
पर अमरत्व की चाहत में जी रहा हूँ।
दर्द को सम्हाले जी रहा हूँ।
कटु अनुभव के सीख पी रहा हूँ।

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15 AUG 2017 AT 19:07

ज़िद है कुछ तो पाना है।
अपने हिस्से का ईमान जगाना है।
अभी तो हम बस दिवस मनाते है।
लेकिन उज्जवल जोत जगमगाना है।
एक ऐसा मुक़ाम पे जाएँगे।
फिर से इतिहास दोहरायेंगे।
हम भूले नहीं वो सोने की चिड़ियाँ।
हमारी सबकी प्यारी छोटी सी गुड़ियाँ।
हमें मत बताओ जहाँ हमने क्या नहीं किया।
हमें मत समझाओ हमने क्या नहीं सह लिया।
ये तो हम है जो हर हाल में भी जीत जाते है।
आधे तो केवल जीने के लिए जुगत लगते है।
कहा गए वो सरफ़रोश जिसने बाज़ी घुमा दी।
आपने मातरे वतन के सब कुछ गँवा दी।
आओ मिल फिर वही प्रयास लगायें।
हम अपने भारत को स्वच्छ निर्मल बनाये।

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