काश के मैं समझा पाऊ कभी कितने ख़ुशक़िस्मत है वो जो परिवार के साथ ख़ुशी मानते है त्योहार हो या जन्मदिन सालगिरह हो या प्रमोशन घर के सब सदस्ये साथ बैठ के खिलखिलाते है जब कभी दूर रहना हो ज़िंदगी में उनसे वो ख़ुशियों के गिने चुने दिन भी फ़ीके नज़र आते है समझ सको तो समझना बर्तन तो खटेंगे ही मगर सजी हुई थाल में परसने के ठाठ है
अब वहाँ जाना अपना सा नहीं लगता सब कुछ हो के भी कुछ सच्चा सा नहीं लगता मौसम बदले साल बदले। बदले अब मिज़ाज भी कुछ छुपाते रहे कुछ ना गलती माने आज भी वहाँ जाना अब अपना सा नहीं लगता है वो चंद पुरानी दिवारे जिनपे रंग अब उनसे मिलता है ढल गए अब है वो लकड़ी के दरवाज़े भी जो सीधे सचे खड़े होते थे ना हवा में अपना पन रहा ना रही वो सुहानी शाम सी अब वहाँ जाना अपना सा नहीं लगता धुंधला गई है सबकी शान भी
It’s a union Where two completes one Where left meets the right Where an express train meets a passenger Where wisdom meets an enthusiast Where a fame meets a common Where nature meets a wild Where laughter meets a smile Where hands hold on to each other Where they learn about each other Where they pave path together Where they give it a chance to stand a strength lifelong
मौक़े तो हमने कई दिये थे उन्हें सब ठीक करने के, उन्होंने नजरअंदाज़ी को तवज्जो दी। हमे कहा आदत है हुक्म चलाने कि, हम उनकी नज़रअंदाज़ी को उनका फ़ैसला समझ बैठे अब सिसकते है वो के दरम्याँ बहुत है हमने तो बस एक कोना माँगा था ना दिया तो क्या, आज वहाँ वीरानियाँ बस्ती है।
दिलों को दस्तक दे रहा किसी के मन को लुभा रहा किसी को सता रहा फ़रवरी कि महीना बिछड़ो को मिला रहा कोई घूम रहा तलाश में कोई आज़मा रहा तराशने को कोई फ़िकर से जूझ रहा कोई बस छल्ले उड़ा रहा ये फ़रवरी का महीना कुछ तो फ़रमा रहा
कुछ ना माँगने पर भी जब कभी कुछ मिलजाए, बिन उम्मीद जब कोई किरण चमक जाए, तो यक़ीन मानिए बहुत खूबसूरत होता है। के हर कोई ना हक़ जमाता है, ना हक़ माँगता है, होती है अगर कभी आस किसी से, उपरवाले का पता उसको कंठस्थ होता है।