Vipin Thakur  
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Joined 1 June 2017


Joined 1 June 2017
12 FEB 2021 AT 4:17

अक्सर वक्त को मरहम कर लेता हूँ
मैं हरदफा खुद को खुद से काम कर लेता हूँ
ख़ाहिश होती है फ़लक को चूमने की
मैं ज़मीं को चुम के मन भर लेता हूँ

कलम लिखना चाहती है तुम्हे हर दफा
मैं खुद को लिख के नज़म भर लेता हूँ
समंदर की लहरों सा होना चाहता रहा ताउम्र
मैं किनारा होकर नज़र भर लेता हूँ

कोई ख़ामोशी का मतलब न पूछे हमसे
मैं शहर के शोर को अंदर भर लेता हूँ
मेरी लर्ज़िश पर उठते हैं जब भी सवाल
मैं लफ़्ज़ों का सहारा कर लेता हूँ

होकर अगर कोई गुज़रे मेरे जेहन से तेरी
मैं अब उस याद से किनारा कर लेता हूँ
मुहब्बत से तेरी अब रंज है बस इतनी
मैं करवट बदल कर गुज़ारा कर लेता हूँ

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22 AUG 2020 AT 15:49

हुई है खुद से मुहब्बत अब और कोई फ़िज़ूल इश्क़ नहीं

ये जन्नत ,ये जहनुम सब खुद से हैं इसमें कोई शक नहीं

खुदा से मांगनी हो तो मांगो बस रेहमत इतनी

जो जिन्दां हैं तो जिन्दा दिखें ,वरना मौत के लिए कोई वक्त नहीं

Vipin thakur

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27 MAY 2020 AT 3:57

आसमां भर के होती जिंदगी
मैं ज़मी भर के तुम्हे चाहता
खुशबू बन कर चली आती तुम
भंवरा बन कर में आता
ईद का चाँद होती तुम
मियां बन कर तुम्हे निहारता
होती तुम पहली बारिश सी
मैं सुखी मिटटी सा महक जाता
चली आती श्याम बनकर
मैं चाय तुम्हारी हो जाता
तुम आती रात बनकर खाहिशों की
मैं खाबों सी नींद हो जाता

होती आसमां भर के जिन्दगी
में ज़मी भर के तुम चाहता

टुकड़ा टुकड़ा मगर लिखता रहूँगा

विपिन ठाकुर

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24 AUG 2018 AT 6:31

सब परेशान होते हैं बेवक्त के आने जाने से
चाहत का आना जाना भी घड़ी और मौसम से है अब
मौसम जो अब सर्दी और गर्मी सा नही रहा
घड़ियाँ जो अब सांझ नही बताती
वक्त तो तेज़ है मगर , रफ़्तार कदमो की उससे भी तेज़
तेज़ इतनी की चाय टेबल पर रह जाती है और खाना गाडी में
तेज़ इतनी की दिवाली फरवरी में आती है और होली सितम्बर में
तेज़ इतनी की माँ खिड़की पर रह जाती है और पापा स्टेशन पर
तेज मन नही है बेवक्त ज़रूरते हैं
जिसे घर चाहिए मगर रहना नहीं है
जिसे दोस्त चाहिए पर मिलना नहीं है
जिसे नीद चाहिए पर सोना नहीं है
उड़ान परिंदों की ही अच्छी है
इंसान को चलना ही चाहिए ,
थक जाये , तो बैठ जाये अपनों के साथ
दौड़ ने बोहूत दूर रखा है खुद को खुद से
वक्त अगर कुछ धीमा होगा तो सोचूंगा
मौसम अगर कुछ अच्छा होगा तो लिखूंगा
घड़ियाँ अगर साँझ बतायेंगी तो लौटूंगा
क़दमों को फिर मद्धम कर घर बैठूँगा
माँ पापा के पास रहूँगा लम्हा लम्हा
थोडा जीना सीखूंगा फिर दोस्तों से
थोडा वक्त तो रखूंगा तन्हा तन्हा ||

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24 AUG 2018 AT 0:15

बेहद अकेला हूँ पर सीख लूँगा
मैं खुद से दिल लगाना भी सीख लूँगा

दरवाज़े और दीवारों के सवाल नही होते
बिस्तर पर अब कोई नये ख्याल नही होते

चाहत का मंज़र बस अब नीद का आना है
लफ्ज़ कहाँ बयाँ हुए दिनभर खाबों को बताना है

और तुम्हे फिर लिखूंगा , रंग तनहाई के सीख लूँगा
कुछ न लिख पाया तबभी ख़ामोशी मैं रहना सीख लूँगा |

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9 JUL 2017 AT 6:55

तेरा हुन्नर कहूँ या ज़लालत
पहले दोस्त देता है फिर दुरी

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8 JUL 2017 AT 1:22

मैंने सीखा है गिर कर उठने का सलीका
तुझे क्या बताउं में अपने जीने का तरीका

वक्त पे काम और काम पे वक्त लगा देता हूँ
मैं रिश्तों पे मजबूरी का तख़्त लगा देता हूँ

कोई मुझमे गुरुर देखता है तो कोई लाचारी
कोई तोहमत लग देता है तो कोई बेकारी

कौन समझेगा मुझे और कौन समझाएगा
मेरे हिस्से का प्यार क्या मुझे भी मिल पायेगा ?

ख्वाहिशों के समन्दर में अकेलेपन की खाई है
चाहत हर किसी को , हर बार कहाँ मिल पाई है

मेरी भी कोशिश है बस खुद को सम्भाल लूँ
तेज़ हो रही दुनिया में अपनों का हाल लूँ

बिखरे हुए अल्फाजों को लबो पे उठाना
और जहाँ दिल करे , वहां तुम सजना

Vipin thakur











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7 JUL 2017 AT 4:35

कल वो सुर्यप्रकाश बन निलकी
फिर ढल कर निशा बदल गयी
ऐसी चोंधी नज़रे उज्याले से उसके
मनो महासागर की दिशा बदल गयी ।।

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5 JUL 2017 AT 4:47

कभी गिरना तो कभी संभल जाना
वक्त मिले तो थोड़ा बदल जाना
रास्ता मुश्किल है आज आराम करो
कल थोडा जल्दी निकल जाना ।।


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29 JUN 2017 AT 9:43

उनसे पूछ कर आती हैं मेरे हिस्से की सांसे भी
न जाने कब वो रूठ जाएँ
न जाने कब हम टूट जाएँ ।।

बेसबब पूछता रहा मैं भी सवाल मुतमईन
न जाने कब वो चुप हुए
न जाने कब वो चल दिए ।।

इनायत-ए-इश्क में रहने का फायदा बोहोत है
न तुमको भूलने देता है
न खुद से भुलाया जाता है ।।

बड़ी बेज़ार मुहब्बत है तेरे और मेरे बीच में
न यकिं तुझमे है
और न वकालत मुझमें ।।

मुतमईन = बेफिक्र ,निश्चिन्त
इनायत = कृपा , अनुग्रह
बेजार = नाखुश , अरुचिकार

विपिन ठाकुर








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