सब परेशान होते हैं बेवक्त के आने जाने से
चाहत का आना जाना भी घड़ी और मौसम से है अब
मौसम जो अब सर्दी और गर्मी सा नही रहा
घड़ियाँ जो अब सांझ नही बताती
वक्त तो तेज़ है मगर , रफ़्तार कदमो की उससे भी तेज़
तेज़ इतनी की चाय टेबल पर रह जाती है और खाना गाडी में
तेज़ इतनी की दिवाली फरवरी में आती है और होली सितम्बर में
तेज़ इतनी की माँ खिड़की पर रह जाती है और पापा स्टेशन पर
तेज मन नही है बेवक्त ज़रूरते हैं
जिसे घर चाहिए मगर रहना नहीं है
जिसे दोस्त चाहिए पर मिलना नहीं है
जिसे नीद चाहिए पर सोना नहीं है
उड़ान परिंदों की ही अच्छी है
इंसान को चलना ही चाहिए ,
थक जाये , तो बैठ जाये अपनों के साथ
दौड़ ने बोहूत दूर रखा है खुद को खुद से
वक्त अगर कुछ धीमा होगा तो सोचूंगा
मौसम अगर कुछ अच्छा होगा तो लिखूंगा
घड़ियाँ अगर साँझ बतायेंगी तो लौटूंगा
क़दमों को फिर मद्धम कर घर बैठूँगा
माँ पापा के पास रहूँगा लम्हा लम्हा
थोडा जीना सीखूंगा फिर दोस्तों से
थोडा वक्त तो रखूंगा तन्हा तन्हा ||
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