तो एक क़रार ये रहा कि ख्यालों के कतार में खड़ी कर दें बातें कई और छोड़ दें धागों को बिना बांधे पतंग को। उड़ा देनी हैं ना हमें फिकरें कई, मसले कई और कई बेमानियां। औरों के ज़ेहन में सवाल उठा ख़ुद बैठ जाना है किसी बरगद के नीचे कुएं के पास खाट पर। ऐसा हो सकता है क्या? कहाँ मिलेगा अब सब। तो सुनो,उड़ जाने दो पतंग को, हवा को और बातों को। हमें क्या हमें तो बस दो पल मुस्कुराना है।
अबकी तुम आओगे तो अदरक से लबरेज चाय पिलाएंगे तुम्हें, वो क्या है ना कि दिसंबर जो आ गया है।
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