क्या सोच रही मैं क्या जानू
कैसे मैं खुद को पहचानूं,
अपने अन्तर्मन पर बस नही मेरा,
किस उलझन में हूं क्या मानु।
जल तरंग सा जीवन मेरा कल कल
करता बहता था,
प्रेम ,प्रणय का झोंका हमेशा निर्झर
चलता था,
आशा और विश्वास लिए मैं आगे बढ़ती रहती थी,
नवजीवन सा सुंदर हर सवेरा दस्तक देता था।
सहसा मैं कैसे अटक गयीं,
यूं उलझ गयी, यूँ भटक गयी,
आशाओं से ओत प्रोत मैं,
जीवन की आंधी में बहक गयी।
जो होता है वो प्रकृति है,
इस सत्य को कैसे भूल गयी,
अपने मन को संभालने की ताकत
कैसे सिमट गयी,
जीवन एक प्यार का ओज है यह मष्तिष्क की ये सम्पदा नही।
मेरा मन अब मैं लिखूँगी किसी और कि इसमें जगह नहीं।
दुख,तृष्णा,निराशा नही,अब रोशनी का ये सागर होगा,
प्रेम, दया,स्नेह प्रीत का भरा हुआ गागर होगा।
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