भाग २
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I write,
To not just write,
I write to pour my heart into my writing
Because I don't have any resort
Except writing.
I took my pen to make it out that tangled thrones,
I took it to draw that "blues" in oranges,
I took the pen to write down the solutions to that mathematical problems of the world ,
I took it because I don't have any resort, except writing.
BECAUSE:
It works as a key to that rusted lock,
It works as the hammer to that iron fist,
It works as the handkerchief to that salty tears,
It works as stitches to that bulleted heart ,
It works as peace to that unending chaos,
It works as full stop to that dot ....dot.... dot.-
Can I write about myself?
No, they won’t like it.
Fine.
Can I atleast start my sentences with "I"?
No, they'll say I make everything about me.
And Blues? Forget it—
Only bliss matters to them.
Alright, I'll write something cheerful.
They say my words aren't fancy enough.
Fine.
I'll get myself a dictionary and craft a superficially sophisticated poem.
Now it's my behavior they criticise.
Okay, I'll put a mask on my face
and not speak a word.
They say,
I get confused between 'it's' and 'its' a lot.
Got it. I’ll be careful.
But now they say they dislike people pleasers.
Well, I—
Enough.
A people pleaser,
but can I ever please people?
I bet not.
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मैं "अर्जुनोगामी" सोचा था देखूंगी मात्र "मत्स्यनयन"
लेकिन, हाय! ये शापित मन विचलित हो उठा देखने को मत्स्य सकल!
जब बैठ टटोला इस मन को,
तो पाया कोई दावानल लील गया है इस उपवन को।
जहां फूटने थे रमणीय प्रसून और भीनी सुकून,
अब उग आए हैं कालकूट के अतीव भयंकर शूल।
"मधुसूदन" ने लगता था जो बांह छोड़ दिया था,
शायद पसीज कर पुनः थाम लिया है।
छिपाते हुए स्व उर में ,
लगे समझाने मधुर स्वर में।
लाडो! मन उलझने स्वयं ही बुनकर आप हीं आप फंसता,
फिर बेचैन हो न जागता ना सोता।
इसलिए.......
छोड़ शुभ अशुभ, हित अहित,जय पराजय सर्वस्व मुझपर,
मान ले बस एक बार अधिकार तू केवल अपने "कृष्ण" पर
फिर देख कैसे वायस श्रीगाल आनंद बटोरेंगे ,
और सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
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अगर शब्द आपको कागज़ के किनारों को चाटती आग की तरह जला न दें, तो मत लिखिएl
अगर वे आपके पेट की गहराई से कच्चे होकर नहीं निकलते, आपकी हड्डियों को कुतरते हुए नहीं निकलते, तो मत लिखिए।
अगर वे आपकी नींद हराम न कर दें,
अंधेरे में करवटें बदलते न रहें, अपने ही विचारों में उलझे न रहें, तो न लिखें। अगर वे आपको चीर न दें, आपको पन्ने पर तब तक खून बहाने के लिए मजबूर न करें जब तक कि आपके हाथ कांपने न लगें - तो न लिखें
यदि आप किसी लड़की को सिर्फ प्रभावित करना चाहते हैं कि वह आपसे प्यार करे, या कुछ सुंदर बनाना चाहते हैं, जैसे कि अच्छी तरह से लपेटा हुआ उपहार, जिसके अंदर कुछ भी न हो, तो न लिखें।
यदि आप प्रशंसा के पीछे भाग रहे हैं, यदि आप अनुमोदन के लिए लालायित हैं, यदि आप छाया के बजाय सुर्खियों में आने के भूखे हैं, तो न लिखें।
यदि वे उस स्थान से नहीं आते हैं जहां देखने से आपको डर लगता है, जहां छूने से आपको पीड़ा होती है, तो न लिखें।
तब तक प्रतीक्षा करें जब तक वे आप से बाहर निकलने के लिए अपना रास्ता न बना लें, जब तक वे जन्म लेने के लिए चिल्लाने न लगें। केवल तभी...... लिखें।-
शायद मैं उसे इतना प्रेम इसलिए कर पाती हूं क्यूंकि मैंने देखा है उसमें "स्त्रीत्व" जो कभी डरता नहीं रोने से और यह बताने से भी, ना ही अपनी और मेरी व्यथाओं की शल्य चिकित्सा करने से। हां...मैं उससे प्रेम कर पाती हूं इसलिए क्योंकि उसके साथ मैं भूल जाती हूं अपना "स्त्रीत्व" और वह अपना "पुरूषत्व"l
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नारीवादी दृष्टिकोण से जब देखती हूं,
पितृसत्तात्मक सोच की जेल को,
अधिपत्य की बेड़ियों में फंसी,
मेरी स्वतंत्रता,मेरी आत्मात्मकता दबी हुई है।
पुरुषों की शक्ति,पुरुषों की विचारधारा,
मेरी सीमित स्वतंत्रता,मेरे विचारों की अज्ञानता को प्रकट कर रही है।
चालू रीतियों के बंधन में ,
मेरी स्वप्न साकारता ,मेरी सच्चाई को दबा रही है और "भ्रूण" हो रही है।
भूमि के पुराने शिखर पर उन्मुक्ति की ऊंचाई,
उन्मार्यादा,सम्मान,आत्मसम्मान की मांग करूं या आवाज़ दबा कर रखूं?
पाताल की गहराई में दबी असलियत,
पितृसत्तात्मक सोच का अस्तित्व,कितनी अंधेरों में मेरी उपस्थिति को घेरता है।-