जो कंकड़ समझ कर फेंक दिया तूने, वो नगीना था मेरे दोस्त
जो बीत गया आंसुओं में, उस पल को तो जीना था मेरे दोस्त
न जाने तू कौनसे काम में मसरूफ़ रहा हर दिन हर रात,
हमसफ़र राह तकती रही, सावन का वो महीना था मेरे दोस्त
पूरी दुनिया को गुमराह करते रहे ये ख़ज़ीनो के अफ़साने,
तू सन्दूक ढूंढता रह गया, दफ़न कहीं वो दफ़ीना था मेरे दोस्त
उन वहशी दहशतगर्दों के सामने कोई क़लम लिए अड़ा रहा,
पसीने की तरह बहा खून, क्या फ़ौलादी वो भी सीना था मेरे दोस्त
अंदर गटक गए उन अश्क़ों को अपने हलक़ तक आते-आते,
मोहोब्बत जो की थी, अब किसी ज़हर को तो पीना था मेरे दोस्त
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