अच्छा हुआ जो झड़ गए मन के अहम के पत्ते
वरना.. ऊंचाई से गिरने का पता कैसे चलता,
और जो नए अंकुर फूटे हैं वक़्त की टहनी पे
उन्हें मौसमों से लड़ने.. का पता कैसे चलता,
है ना..,
शुक्र है.. के तू मुझे नहीं मिली हमदम
मिलती तो.. बिछुड़ने का पता कैसे चलता,
माना के ख़्वाबों के तारे टूटते हैं.. ज़िन्दगी
पऱ टुटकर भी.. ना बिखरने का पता कैसे चलता,
है ना...,
भला हुआ.. जो नहीं रुका.. नयनों का पानी
नहीं तो नदिया को झरने का.. पता कैसे चलता,
और अच्छी है "दिल".. चहरे पे कोयले सी कालिख़
वरना मिट्टी को सोने सा.. निखरने का पता कैसे चलता,
है ना...!
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