हाॅं, मैं एक स्त्री हूॅं
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सृजनात्मकता का दायित्व उठाए
वात्सल्य को सीने से लगाए
पीड़ा को नौ महीने पेट से बाॅंधती हूॅं ,
हाॅं , मैं एक स्त्री हूॅं।
पारिवारिक हित के लिए स्वहित को भूलाकर
सपनों को कर्तव्यों की बलि वेदी चढ़ाकर
परइच्छा हेतु स्वइच्छा भूलाती हूॅं,
हाॅं , मैं एक स्त्री हूॅं।
मान-मर्यादा व संस्कार क्यों केवल स्त्री हिस्से आएं
क्यों केवल वो पति की अनुगामिनी ही कहलाए
ईश्वर की देन हैं दोनों स्वअस्तित्व भी रखती हूॅं,
वो पुरूष हैं तो मैं भी एक स्त्री हूॅं।
इस पुरूष प्रधान समाज में नारीत्व भी जागेगा
पुरुषत्व के आगे कभी भी स्त्रीत्व नही हारेगा
सृष्टि-संचालन हेतु समान अधिकार रखती हूॅं,
गर्व से कहती हूॅं, हाॅं, मैं एक स्त्री हूॅं।
......…. निशि..🍁🍁
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