एक अटपटा दृश्य था—
दोपहर के समय
जब पृथ्वी सो रही थी
सूपड़ा फेंक गया कोई— कचरे के ढ़ेर पर
सूप के सामने रूककर देखता हूॅं
उसकी नसों में
अभी भी बचा है जमीन का मटमैलापन
बची है अनाज की पुरनाइन गंध...
रह-रहकर दिखाई दे रहा है माॅं का चेहरा
हाॅं यह— माॅं के सूप फटकारने की ही आवाज है
कूड़े का ढ़ेर मंत्रमुग्ध सुन रहा है
फट्-फट् दाना और भूसा अलगाने का मिला जुला संगीत...
सूपा के सामने झुका बैठा हूॅं
सुनो !
बाबा कबीर गा रहे हैं
"सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय "...।
-