दिन- रात भू तपती है आव्हान करती है पिपासा अमृत की प्राण प्रिये उबलती है जग-जल , भू-थल कर भाग पिघलती है अनिल-अनल , वात-जल सब उगलती है धरा सुंदरी जग-मग-जग-मग प्रणय प्रभात करती है !
मैं कभी नहीं भटकी सुकून अच्छी नींद लाता है सुकून का गैर हाज़िर होना मेरे खयालों की हथेलियों को स्याही से भर जाता है... और मैं रात के लिहाफ में खुद को खोलकर 'तुम' को बुनती हूं क़ज़ा आने तक.