अपनी ही जिंदगी से मैं आज रूबरू करने लगी थी
जुग्नुओं को ही तदबिर समझकर मैं बढने लगी थी
ए जिंदगी खुद एक सवाल हैं जवाब मांगने लगी थी
बहुत सोचनेके बाद में ही उलझनो मे पडने लगी थी
हर खुशी से ले खुदखुशी तक गुफ्तगू करने लगी थी
एक पत्थर की भाॅंती ही वहभी कठोर बनने लगी थी
फकत मैं उसको हर लम्हो की किताब देने लगी थी
शायद वह मेरे साॅंसो का ही हिसाब मांगने लगी थी
खुदगर्जी के इस जमाने मे बेफिक्र दिखने लगी थी
चाह नहीं दर्द मे हमदर्द की अब मैं लिखने लगी थी
हस रही थी वो तेरी सादगी पर जिंदगी-ए-जागृती
तकल्लुफ से ही क्यू न तुम शांत तो रहने लगी थी
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