जब भी तुम यूँ बातें बनाती हो
उनमें बहलाकर-उलझाकर
मुझको फँसाती हो,
मैं हर बार की तरह
गुस्से से रूठ जाता हूँ
चिढ़ता हूँ उखड़ता हूँ
झनझना जाता हूँ,
तुम चेहरे पर चेहरे बना
फ़िर मुझे हँसाती हो,
गलती मेरी, अक्खड़पन मेरा
पर तुम, अपने दोनों कान पकड़
जब होंठ अंदर दबाती हो,
सारे दिन की थकावट
ज़िन्दगी के सारे गम
दुनिया का हर सितम
मेरी रूह से दूर भगाती हो,
कैसे मैं यह सनकीपन छोड़ दूँ?
तुमसे रूठना, चिढ़ना छोड़ दूँ?
तुम्हारे चेहरे की वो मासूमियत
वो बांकपन, वो अदाओं का
नज़राना छोड़ दूँ?
कैसे, मेरी रूह को मिलने वाले
आब-ए-ज़मज़म का प्याला तोड़ दूँ?
हाँ तुम कहो तो इन सब के बदले में
यह शौहरत, यह दौलत
यह महफ़िल छोड़ दूँ
- साकेत गर्ग
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