पत्ता-पत्ता दिन मुरझाया, फूल-फूल मुरझायी रात
चर्चाओं के दौर चले पर, रही अधूरी उसकी बात
"मैं" और "हम" के बीच फ़ासला, शर्तों से कब मिट पाया
प्यार कहां तब शेष रहा जब, जीत-हार की बिछी बिसात
ऊंचे पद पा लिए सिफ़ारिश, रिश्तेदारी के चलते
टिकी रही निचली सतहों पर किन्तु विचारों की औक़ात
कड़वे सच के कौर घुटक कर जैसे-तैसे आए हैं
शहरों से खाली लौटों को, क्या दे पाएगा देहात
अक्सर कोई भीगा बाहर, कोई भीतर से भीगा
"वर्षा" में सब भीगे लेकिन, एक न हो पाई बरसात
-