शबरी के बेर, सुदामा के चावल, विदुर की भाजी ! क्या इनका कोई मोल हो सकता है ? महत्व इस बात का नहीं है कि हम क्या दे रहे हैं, महत्व इस बात का है कि हम जो दे रहे हैं उसमें अपना हृदय उड़ेल रहे हैं या नहीं।
मेरी कविताएँ... मैं वो शबरी हूँ जो चुन.. चुन कर शब्दों को इकठ्ठा करती हूँ फिर चख कर जूठा कर दिया करती हूँ उन्हें तुम्हारे लिये.... अक्सर फिर उन्हें मैं मेरी कविताओं की टोकरी में सजा दिया करती हूँ.. तुम राम से बन आके मेरी इन जूठन को चख लिया करते हो हर बार की तरह... जीवंत हो जाया करती हैं मेरी कविताएँ....
मैं शबरी प्रभु श्री राम कहीं से आ जाओ हृदय का पथ बुहारूँ श्री हरि कहीं से आ जाओ मैं जूठी वाणी से प्रभुजी तुम्हें मनाती हूँ कंकड़-पत्थर ईर्ष्या के प्रतिदिन हटाती हूँ हे मेरे आदर्श कही से आ जाओ करो जग कल्याण , कहीं से आ जाओ मैं शबरी प्रभु श्रीराम कहीं से आ जाओ