शख्सियत तो मिली हैं, कौन सी हैं मुकाम मेरी
गुमनाम चौराहे पर घुमते, कौन सी इसे पहचान दूं मैं!
इक दफ़ा मुझे मिल भी जाये गर मंजिल मेरी
मिलेगा सूकूऩ उसमें, या उसे वहीं पूर्ण विराम दूं मैं!
तितर-बितर ख्वाबों को समेटे नींद भर सो लूं
उठते ही फिर बिखर जाते, कहो इन्हें कैसे आराम दूं मैं!
हैं सफ़र तुम्हारा लम्बा हर किसी को सलाम दो यहां
थम जाऊ कहीं किसी मोड़ पर, और क्या वहां खुद को विश्राम दूं मैं!
आकस्मिक घटनाओं को कौन रोक सका हैं, यहां
जिंदादिली भी जरूरी हैं, आखिर दिल को कितना दिमाग दूं मैं!
कहीं दुनिया में दर्ज हैं किसी का नाम, तो कहीं किसी के सीने में
लगातार हार को ही यहां एक बार फिर उसे ही जीत का नाम दूं मैं!
-Taste_of_thoughts✍️
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