उफ़्फ़.. वो चाँद.. वो तारे.. मिले ही कब हैं
जो हमनें देखे थे.. ख़ूबसूरत.. जुगनू से शब में,
जाने कहाँ गए...
वो नीदों में परिक्रमा करते.. ख़्वाबों के धूमकेतू
कमबख़्त.. यह ज़िन्दगी के उजाले तो अँधेरों से बिल्कुल ही अलग हैं,
वो दिल के कहकशाँ में.. प्रेम की वो उड़ती उड़नतश्तरीयां
वो सारे तिलिस्म प्रेयसी के.. क्यूँ अब औझल से सब हैं,
सोचता हूँ.... जब उसी सहरा से.. फिऱ रूबरू होना है ज़िन्दगी
फिऱ नयनों में ख़्वाब.. उपवन के.. क्यूँ यह बेमतलब हैं..!
उफ़्फ़... वो चाँद..
वो तारे...
मिले ही कब है.!
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