आते आते मिरा नाम सा रह गया
उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया
रात मुजरिम थी दामन बचा ले गई
दिन गवाहों की सफ़ में खड़ा रह गया
वो मिरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया
झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए
और मैं था कि सच बोलता रह गया
आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया
उस को काँधों पे ले जा रहे हैं 'वसीम'
और वो जीने का हक़ माँगता रह गया
___✍ वसीम बरेलवी-
गुड़ सी मीठी बोली इनकी
इनकी हर आदत शैतानी है
कोयल सी आवाज़ है इनकी
हर धड़कन दहकानी है
रूठे कभी रूठे तो यूँ लगता है
सब बच्चो की ये नानी है
लिखने का कह दो गर इनको
करती अपनी मनमानी है
है तपस्विनी देवी मीरा सी
कृष्ण की राधा रानी है
यथा नाम और तथा गुण है
क्योंकि नाम भी इनका धानी है
हँसते हुए हैं इंद्रधनुष सी
और गुस्से में तूफानी है
चेहरा इनका पूनम के चाँद सा
आखियाँ बड़ी सुहानी है
इक़ अरसे से मैं इनका दीवाना
ये कान्हा की दीवानी है-
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूं मैं ,
कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा ।।-
कभी दिल में मंज़िल न मिलने का डर नही आता
हम को रास्ते बदल लेने का हुनर नही आता
जब से दीवार खड़ी हुई घर में, जाने क्या बात है
दोस्त जो भी गया उधर फिर इधर नही आता
बयान बदल जाया करते हैं यहाँ हालात देखकर
यक़ी कीजिये अब मुझे यक़ी किसी पर नही आता
दायरों के कफ़स में कैद जी सके न मर सके
तुम्हे इस के सिवा रास कोई और ज़हर नही आता
परदा डाल देते है इक दूसरे के सच पे हम तब ही
मुझे ये नजर नही आता तुझे वो नजर नही आता
जाने क्या कहा इस राह से तपती धूप ने 'आनन्द '
तेरे साये को पनाह देने,कही कोई शज़र नही आता-
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YourQuote_Didi
ग़ज़ल
कौन से जज़्बात कहां कैसे उभारी जाती है
ये तरीका हो तो हर बात निखारी जाती है
जैसा बनाना चाही तूझे बन न सका तू
यही एक कश्मकश बाकी रही जाती है
आजकल के आधुनिक औलाद भला क्या सोचें
किस प्रकार मां-बाप के होकर रही जाती है
संस्कारों की मर्यादा मिटा देनी हो जैसे सबकुछ
इस तरह अर्धनग्न वस्त्र से तन ढ़ाकी जाती रही है
पूछ्ना है तो फलक से फकत पूछो जाकर
किस तरह ज़मीं से रिश्ता निभाई जाती रही है..-
कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ बाप के होंठों से हंसी जाती है
हर शख्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ
फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले
-
जिन्हें सलीका नहीं है
तहजीब-ए-गम समझने की
उन्हीं को महफिल में हमने
अक्सर रोते देखा है-
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता,
तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता!
-वसीम बरेलवी-
तमाम उम्र बड़े सख़्त इम्तिहान में था
वो फ़ासला जो तिरे मेरे दरमियान में था
परों में सिमटा तो ठोकर में था ज़माने की
उड़ा तो एक ज़माना मिरी उड़ान में था
तुझे गँवा के कई बार ये ख़याल आया
तिरी अना ही में कुछ था न मेरी आन में था
#वसीम_बरेलवी-
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते,
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते...
(अनुशीर्षक में पढ़ें)
-वसीम बरेलवी-