तकलीफ-ए-दर्द_ दिल-जान-जिगर कहीं पे भी जो ज़ख्म होती है ! दिल को न चैन-जान को न शेहेंन-जिगर को न सुख मिलती है। तब भी मगर तकलीफ-ए-दर्द ! सिर्फ़ आँखों में उभर के, छलक के, बहते आँसूं ही सब वयां करती है।
मेरे शब्दों में जो दर्द के अल्फाज छिपे हैं। उनके सिवाय किसी से कुछ कह नहीं सकता। सबने मजाक बनाना जो सिख लिया है। चाह कर भी दर्द-ए-दिल बयां कर नहीं सकता।