"बहुत चोट करते हैं.. आजकल फ़ूल पत्थरों पे
तूने अगर फैंके हैं तो.. मुझे हैं यह ज़ख्म क़बूल पत्थरों के,
बहुत प्यारे हैं मुझे यह गम के ख़ज़ाने मुहब्बत के
रखता हूँ संभाल-संभाल के.. हटाकर धूल पत्थरों से,
अज़नबी सी रहती हैं शहर में दीवारें सट के दीवारों से
अफ़सोस.. हमारे भी हो गए.. कुछ हूबहू उसूल पत्थरों से,
बनकर मंदिर-मस्जिदें.. ना जाने क्यूँ टूटा करें
उफ़्फ़.. बेवज़ह बनकर ख़ुदा.. बहुत हो गई भूल पत्थरों से..!"
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