लिहाफ़ में बंद चाँद सी आँखे
रोज़ चार होती थीं , रोज़ खुलता था
पर्दा और रोज़ अज़ान होती थी ।। बंद लबों से उनके बीच बातें हज़ार होती थीं , एक यही तो वो वक्त होता था जब वो ख़ुदा के इबादत में सज़दा करती थी और उसे 4 बाई 4 की खिड़की में चाँद का दीदार होता था...... कोई कहानी शुरू होने को थी , कोई इबारत साँस लेने को थी की अब्र ने इश्क़ किया चाँद से और समेट लिया उसे अपने आग़ोश में ।।
अगली सुबह सिसक़ रहे थें अशआर कई सज़दे में थीं आयतें ख़ामोश कहीं । अमावस हुयी इस खिड़की पर , उस खिड़की का चाँद ले गया ईद कोई ।।
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