झाड़ू छोड़ आज इन हाथों ने फिर क़लम है थामी
अब चाहे ये जमाना मुझे बदनाम करे या नामी,
लिखने चली हूँ मैं आज एक कविता
चाहती हूँ जो बहे रक्त में बनकर सरिता,
प्रतिद्वंदी चाहे कर दे कविता राख
पन्नों में लगाकर आग,
बुझती ज्वाला में
जो बचेगी एक लौ,
कहलाएगी वो "ज्योति", कर जाएगी वो कविता रौशन
मिल जाएगा फिर काव्य को एक नया मोती,
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