दिल्ली के नवाब साहब और लखनऊ का रिक्शावाला
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वो जोरों की बारिश में भी ,
रिक्शा चलाने निकल पड़ता है ।
वो पिता है साहब ,
वो अपने बच्चो को भूखा कैसे देख सकता है ।-
दर्द के रिक्शे में बैठकर, जब भी यादें आती है..,
गमों का पहिया खुद-ब-खुद गति ले लेता है..!!
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वो नन्ही सी गुड़िया आज बड़ी हो गयी,
जो छोटे भाई की खातिर कमाने खड़ी हो गयी....!-
मानो रिक्शा,
चालक को कह रहा हो,
भाई उतर!
थोड़ा आराम करने दे,
छांव देखी नही,
पांव पसार दिए,
तू भी बूढ़ा हो रहा है,
इस आम की तरह.-
पुस की इस शीत भरी रात में
उन्मुक्त नभ तले कायनात में
रिक्शावाले का जीवनपर्यंत है
रैन बसेरों में दलाल जीवंत हैं-
कभी मिले खुदा मुझे, तो पूछूं ज़रा उससे,
क्या गुनाह था उस नादान का, जो बस्ते की जगह तूने रिक्शा थमा दिया....!-
वो तेरा रिक्शा पर बैठ कर कॉलेज रोज आना।
रिक्शा के पीछे-पीछे तेरे दीवाने का मंडराना।।
रिंक्शावाले को रिक्शें का चेन गिरा के लिए धमकाना।
रिक्शावाले का अकड़ कर रिक्शा चलाना।।
तेरे दीवाने की लाइन में दिन प्रतिदिन बढ़ते जाना।
तुमको भी अच्छा लगता था इस तरह से आना।।
आज भी मुझे याद है मैथ वाले का बायोलॉजी के क्लास में आना ।
एक ग्रुप छोड़ने जाता तो दूसरी ग्रुप का लेने जाना।।
कितने आशिकों को अपने पीछे-पीछे घुमाना।
तुम्हारे एक झलक पाने के लिए तुम्हारे घर के सामने घंटों खड़ा रहना।।
आज भी मुझे याद है तेरा इतरा कर कॉलेज में आना।
मुस्करा कर सब जानते हुए भी अनजान बन जाना।।
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बस इतना ही बदला है गाँव से शहर में आकर
जो कल हल चलाते थे वो आज रिक्शा चलाते हैं।-
" रिक्शा चालक का दिनचर्या "
फटे पुराने वस्त्र पहन कर
परिश्रम से रिक्शा चलाते हो।
न थके कोई मुसाफिर इसलिए
रिक्शा चालक बन जाते हो।
कङके के धूप में तुम
खुन पसीना बहाते हो।
पङ जाते तुम्हारे पाँव में छालें
पर उन्हें गंतव्य तक पहुंचाते हो।
दिन भर करते तुम कङी मेहनत
थके मंदे वापस घर आते हो।
साथ में लाते भोजन सामग्री
बङे चाव से बच्चों को खिलाते हो।-