देख ली ज़िन्दगी.. हमनें घूम कर ज़माने भर
सबके हाथों में तीर थे.. और हम ही थे निशाने पर,
किसी काम ना आये मरहम सारे उम्मीदों के
के और भी गहरा गए.. ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-जाँ छुपाने पर,
साग़र से मिलने निकली तो थी नदी अरमानों की
पऱ वक़्त ने खड़े कर दिये.. बांध से हर मुहाने पर,
जाने कैसी है यह.. मुहब्बत की राह-ए-गुज़र
के क्यूँ मंज़िल बदलती नहीं.. रास्ते बदल जाने पर,
बहुत ऊँचा उड़के.. लौट आये तेरे तसब्बुर के परिंदे सभी
आजकल बहुत चहल-पहल सी है..मेरे आशियानें पर,
वैसे तो.. ख़्वाइशों की
मन में इक गुदगुदी सी है
पऱ.. कमबख़्त हम क्या करें.. अंकुश सा है मुस्कुराने पऱ..!
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