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सत का विकास कर
रज का प्रयास कर
तम का विनाश कर
त्रिगुण धर त्रिदेव बन
त्रिभुवन में वास कर-
मेरी कविताएँ अपवित्र हैं
इनमें भी रज की चित्र हैं
मैं अपनी कविताएँ चढ़ाने जाऊँगी कामाख्या
और तुमसे पूछूंगी सबरीमाला की व्याख्या
बताओ मुझे तुम लोग
तुम्हारे अस्तित्व का उपभोग
कैसे हुए तुम पवित्र
तुच्छ पुरुष स्त्री रज से उत्पन्न चित्र..-
शोणित अपार उद्गार अंग
पीड़ीत सदेह रतनार रंग
भ्रूभंग अंग नश्तर उमंग
व्याकुल विहंग मन मतंग..-
जो सपनों के जैसी हो
कण कण में मैं शिव देखूं
हर जन को हरिजन समझूँ
राग द्वेष न हो मन में
निर्मल उज्ज्वल मन मेरा हो
न लोभ रहे न मोह रहे
सारे जग को अपना समझूँ-
ग़म चेहरे पर आया आँखें नम हो गईं
तुझे रज के देखते लेकिन ज़िन्दगी कम पड़ गई...shree💕-
कान्हा तेरे चरणों की रज मैं बनू
लिपट के तेरे चरणों से हर पग चलू.!-
तजो मुरली गहो अब चक्र करो अब कृष्ण फिर गर्जन।
पूतना निरकुंश है द्रौपदी है संकट में कंस हर ओर फैले है।।-
मुकम्मल ना हो,
तो भी रजके इश्क़ करूँगी तुझसे,
ऐसा तो नहीं है,
कि जो ना मिले उसे भुला दिया जाये ।-