पहली बार जब तुम, मुझे दिखी थी
फ़िरते इस बंजारे को, 'मंज़िल' दिखी थी
वो 'बांकपन', वो 'यौवन', वो 'शोखियाँ' दिखी थी
बिन पिये 'मय' मुझे, मस्तियाँ दिखी थी
वो दो उंगलियों में फँसकर
बालों का.. कान के पीछे जाना
ठीक उसी समय, नज़रों का 'झुक' जाना
मुझे किसी 'फ़कीर' की, 'बन्दगी' दिखी थी
धीरे से उन, आँखों का हिलना
मुझसे हटना.. मुझसे मिलना
कड़कती धूप में, ठंडी 'छाँव' दिखी थी
मेरे चेहरे पर जब तुम्हें, हँसी दिखी थी
तुम्हारें हाथों पर मुझे, ठंडी 'सिरहन' दिखी थी
बातों में 'बचपना', आंखों में 'अपनापन'
तुम मुझे चहकती-गाती, 'नाज़नीं' दिखी थी
वो 'शर्म-ओ-हया', वो 'बेबाकपन',
वो 'घबराहट' दिखी थी
वो 'लड़कपन', वो 'सादगी',
वो 'मुस्कुराहट' दिखी थी
ना लाग, ना लपेट, ना पाखण्ड
तुम मुझे हसीन सी कोई, 'अप्सरा' दिखी थी
पहली बार जब तुम, मुझे दिखी थी..
सच कहता हूँ..मुझे आसामन से उतरती
मेरी 'ज़िंदगी' दिखी थी
- साकेत गर्ग
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